एक अपरिचय के आंगन में
एक अपरिचय के आंगन में दीप जलाकर रख आना।।
यदि अपना सुख छोड़ न पाये देख अपरिचय की बेहाली।
तो फिर जीवन व्यर्थ गया, ऐसा ऋषि मुनियों ने माना ।।
बड़ी विलक्षण प्रकृति रीति है काल चक्र गति से निर्धारित ।
संचालन जिससे होता हैं सुख दुख का आना जाना ।।
संभव है भागीरथ प्रयास भी रख न सके जीवित जिजीविषा ।
और किसी की विषम परिस्थिति कर दे असाध्य उसका रह पाना ।।
ऐसे मेंं मानवता कहती है, जा उसके घावों पर फाहा रख ।
और उचित है साहस देकर टूटे मन को धैर्य बधाना ।।
वैभव कितना भी अतीव हो पर मन उद्दिग्न रहेगा "श्री "।
मन की शान्ति सहेज पाने को होगा सेवा धर्म निभाना ।।
श्रीप्रकाश शुक्ल
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 28 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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