अब उस अतीत के खंड़हर में
चलो आपको ले चलते हैं, अब उस अतीत के खंडहर में
उगी, पली, पनपी, लतिकायें अरमानोंं
की, जिस परिसर में
दोसो वर्षो की पराधीनता, तोड़ चुकी थी जिजीविषा
पर सुकर्मों के फलीभूत, कुछ कमल खिले उजडे बंजर में
बढ़ी सुगवुगाहट, शनै शनै राष्ट प्रेम ने तंद्रा तोड़ी
भिढ़ गये सभी संकल्पित हो, भरकर विश्वास अड़िग उर में
फिर बने प्रगति के विविधालय, छाई चहुं ओर बहुमुखी प्रतिभा
हम मंजिल की ओर बढ़ चले, लेकर कुदाल कर्मठता की कर में
थी दृष्टि हमारी नीलगगन में, पर जमीन पर रहे पैर
अब अपनी ये सोच मांगलिक,फैलायेंगे "श्री" जग भर में
श्रीप्रकाश शुक्ल
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