घर बापसी
चारौ ओर भरा था ख़ालीपन निशब्द घरों में
जब से मजदूर गांव छोड़ आये थे शहरों में
हतप्रभ बूढ़े बापू रोज काम पर जाते थे
पाते थे खाने भर दाने शक्ति नहीं थी पैरोंं में
परस रहा था शून्य हर गली धमा चौकडी गायब थी
इधर बन्द थी किलकारी कौने के छोटे कमरों मेंं
बारह घंटे जुटे नगर में फुरसत नहीं सांस लेने की
सम्भव नहीं निकल पाना था घर बाहर थे पहरों में
फिर जब फैला कहर विश्व में समय बना रहबर
हुयी बापिसी घर लौटे मात पिता के चरणों में
गलियां चौपालें ताल तलैय्या गाय भैंस मठिया,
झूम उठे सब के सब "श्री "ड़ूब खुशी की लहरों में
श्रीप्रकाश शुक्ल
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