Friday 14 November 2014

आज दीपक राग गा लूँ 

मानवता की मंगल छवि से आज आस्था  नष्ट हो रही 
द्वेष जन्य पशुता कटुता जन जन में बिष बीज बो रही  
जन सेवा का भाव विगत है व्यक्ति व्यस्त कितना पा लूँ  
जो भी संचित पर्याप्त नहीं क्या,आओ ऐसी सोच भुला लूँ 
आज दीपक राग गा लूँ 
 
अज्ञान तिमिर से आच्छादित सारा परिवेश आज दुखमय 
सच्चे दीपक की पहचान न कोई कैसे बीते जीवन सुखमय 
सच्चा दीपक कण कण गल कर चाहे खुद को भले मिटा लूँ 
पर इस जगती के सघन कलुष को घेर समूचा अंक छुपा लूँ 
आज दीपक राग गा  लूँ 

आज हमारे स्वर में कम्पन लय भी न ठीक से बंध पाती है 
मन वीणा के तार संवारूँ अंतस में निशीथिनी घिर आती है 
उद्द्विग्न मना चिंतित हूँ मैं कैसे जग से कुविचार  हटा लूँ  
जन जन में हो निहित सदाशय ऐसी पावन ज्योति जला लूँ   
आज दीपक राग गा  लूँ 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

No comments:

Post a Comment