संध्या सिंदूर लुटाती है !
ढलते रवि की रश्मियाँ सुकोमल,
हरित पीत पत्तों से छनकर
तरुण युगल मुख पर जब गिरतीं,
दीप्तिमान हो जाते खिलकर
तन में मादकता छाती है
संध्या सिंदूर लुटाती है !
पावस निशादि की मणि सम बूँदें,
आँगन में करतीं किलोल जब
गुंजित ध्वनि रस राग छेड़ती,
बिरहिन बेचैन विलखती तब
धड़कन ह्रद की बढ़ जाती है
संध्या सिंदूर लुटाती है !
नित रात्रि उघरने से पहिले,
श्यामल संध्या घर आती है
पळकावृत मृदु सपनों में,
मधुमय मिठास भर जाती है
जीने की ललक जगाती है
संध्या सिंदूर लुटाती है !
घंटियाँ चर्च की बजतीं जब,
आरती गूंजती मंदिर में
अजान सुनाई दे मस्जिद से,
सद्भाव उभर उठते उर में
धुल,रूह विमल हो जाती है
संध्या सिंदूर लुटाती है !
ये साँझ प्रीतिकर रही सदा,
कोमल तत्वों से खेली है
विस्मृत अतीत को कुरेद,
करती उससे अठखेली है
सुधि उफान ले आती है
संध्या सिंदूर लुटाती है !
दिनकर थककर घर लौटे ,
साँझ खड़ी आरती उतारे
गगन थाल में रखे सजा कर
अक्षत, रोली, दीपक तारे
मुख पर लालिमा सुहाती है
संध्या सिंदूर लुटाती है !
श्रीप्रकाश शुक्ल
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