Friday 14 November 2014

संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

ढलते रवि की रश्मियाँ सुकोमल,
हरित पीत पत्तों से छनकर  
रुण युगल मुख पर जब गिरतीं,
दीप्तिमान हो जाते खिलकर  
तन में मादकता छाती है  
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

पावस निशादि की मणि सम बूँदें,
आँगन में करतीं किलोल जब 
गुंजित ध्वनि रस राग छेड़ती,
बिरहिन बेचैन विलखती तब  
धड़कन ह्रद की बढ़ जाती है 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

नित रात्रि उघरने से पहिले, 
श्यामल संध्या घर आती है 
पळकावृत मृदु सपनों में,
मधुमय मिठास भर जाती है 
जीने की ललक जगाती है 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

घंटियाँ चर्च की बजतीं जब,  
आरती गूंजती मंदिर में  
अजान सुनाई दे मस्जिद से, 
सद्भाव उभर उठते उर में  
धुल,रूह विमल हो जाती है  
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

ये साँझ प्रीतिकर रही सदा, 
कोमल तत्वों से खेली है 
विस्मृत अतीत को कुरेद,
करती उससे अठखेली है 
सुधि उफान ले आती है 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

दिनकर थककर घर लौटे ,
साँझ खड़ी आरती उतारे 
गगन थाल में रखे सजा कर  
अक्षत, रोली, दीपक तारे 
मुख पर लालिमा सुहाती है 
संध्‍या सिंदूर लुटाती है !

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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