Saturday, 26 July 2014

इसने मिसरी घोली

कोई भी मंतव्य धारणा, बहुधा निरपेक्ष नहीं होते 
पूर्वाग्रह मानस में भरकर संस्कार का बोझा ढोते 
कैसे करें आंकलन, अभिमत कौन देश के हित में
कौन समेटे स्वार्थ भावना, उपजे  कौन विरति में 

ऐसे ही निर्णायक क्षण से अभी अभी भारत गुजरा 
किसको उखाड़ फेंकें सत्ता से किस को बांधें सहरा 
भ्रष्टाचार कुशासन दोनों सियासत के दो मोहरे थे 
करनी कथनी मेल ना खाती सत्ता के रंग दोहरे थे  

लोग लुभावन बादे अनगिन, बिखर गये थे ठौर ठौर 
पर जनता के आर्त ह्रदय में  सजे हुए थे  सपने और  
वैष्णव सुर की चाहत सहसा उमड़ पड़ी अरमानों में 
जन  सैलाब  उठाया इसने  मिसरी  घोली कानों में 

फिर क्या था भाईचारे की बज उठी  दुंदभी  हर घर में 
मंदिर मस्जिद और चर्च की बजी घंटियाँ इक स्वर में
खर पतवार सड़ रहा था जो फेंका निकाल घर के बाहर 
सत्ता सौंपी संत जनों को एकत्व हमारा हुआ उजागर   

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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