मनोदशा एक प्रोषित कवि की
जब कविता प्रेमाकुल मचले बिम्ब अनेकों खुद मड़रायें
खिड़की चोखट सांकल खटिया शतरूपे की उपमा पायें
तारे चन्दा गगन चांदनी आपस में घुल मिल बतियाएँ
पत्ते पतझड डाल डालियाँ पंचम स्वर में गाना गायें
परस उँगलियों का मधुरस हो साडी दे सतगुणी पुलक भर
पुरबा के झोंकों से बिखरे केश भरें मन में मादक स्वर
पायल की रुन झुन की ध्वनियाँ करके पार सात सागर
कानों में आ सिहरन भर दें, नाच उठें जड़ चेतन नागर
समझो भारत का इक पंछी फंसा हुआ स्वर्णिम पिंजड़े में
उलट पुलट सुधियों के पन्ने खोज रहा अपनों को मन में
सोच रहा अब कैसे निकलूं काटूं कैसे ये कनक सलाखें
कैसे तोड़ूँ ये बंध सघन से कैसे फड़काऊं सिकुड़ी पाँखें
श्रीप्रकाश शुक्ल
