Thursday 6 March 2014

कौन मन के दर्पण में


अरे कौन मन के दर्पण में, बार बार टुक टुक करता है 
सुधियों की चोंचों से चोटिल, मन में आ पीड़ा भरता है 
क्रूर नियति के हाथों में, क्यों नहीं समर्पण करता है 
अनबुझी मिलन की चाह लिए,जाने क्या ढूँढा करता है 

दुनियाँ स्वप्नों सी टूट गयी थी, जब पंछी पथ छोड़ चला 
अश्रु भरे दृग रोक न पाये, फिर कौन रोकता  उसे भला 
सोचा था समय संभालेगा, कालान्तर विगत भुलायेगा 
मौसम कैसा भी रहे मगर, अब पंछी लौट नहीं आयेगा  

पर पहली वर्षा की सौंधी सुबास, आसान न होती बिसराना  
पहली छुवन पांच पोरों की, सम्भव नहीं सहज मिट पाना 
कितना भी गहरा संयम हो, वो दर्पण सुधियों में आता है 
जहाँ धरा हो चित्र स्वयं का, पंछी मन वहाँ दौड़ जाता है  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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