अपना झूठ सही करने को देते हैं वे तर्क हज़ारों
जीवन की स्वाभाविक प्रवृत्ति, हम संस्कार से पाते हैं
मूल रूप जिसका थिर रहता, कभी बदल ना पाते हैं
बेल करेले की चन्दन पर, चढ़ी रहे कितने भी दिन
थोड़ी सुबास तो आ सकती है, कटुता नहीं मिटा पाते हैं
हर समाज में कतिपय जन, स्वेच्छा से चुन कई मुखौटे,
छद्म वेश में रहने की ही, जीवन पद्धति अपनाते हैं
बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता से, अपने भविष्य की दशा आंक,
यदि आगे काम निकलता हो, तो गधे को बाप बनाते हैं
अपना झूठ सही करने को, देते हैं वे तर्क हज़ारों
अपने पांडित्य प्रदर्शन को, हर विषय में टांग अड़ाते हैं
कोई भी, बालक, महिला या हो जान छिड़कने वाला,
कुछ भी अंतर नहीं व्यर्थ ही, सभी दुलत्ती खाते हैं
स्वार्थपरक ऐसे मानव, दूर शिष्टता से कोसों "श्री "
हर टोली, हर समाज में, भार रूप समझे जाते हैं
श्रीप्रकाश शुक्ल
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