अपना झूठ सही करने को देते है वे तर्क हजारों
पर अनचाहे ही उग आते हैं, ज़हरीले से खार हजारों
कुछ अभितप्त अहम् के बस, फंदा फरेब का हाथ लिये
अपना झूठ सही करने को, देते रहते है तर्क हजारों
नहीं जानते काठ की हांड़ी, चढ़ती है बस एक बार ही
पश्चात, कलई खुल जाने पर मुंह की खाते बार हजारों
चालाकी चाटुकारिता की, ओढ़े अमरबेल सर ऊपर
अपना उल्लू सीधा करने, छुप छुप करते बार हजारों
कैसी विडम्बना है ये, कि पढ़े लिखे शिक्षित जन भी
स्वच्छ नीर को गर्हित करने, मिल जाते हैं साथ हजारों
दोष कहाँ है, शिक्षा का या संस्कार का, कैसे जाने "श्री"
कदम कदम पर भरे पड़े हैं, इस जमात के लोग हजारों
श्रीप्रकाश शुक्ल
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