अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये
दीप सद्भाव के ही निरंतर जलें, पाठ ये हम जगत को पढ़ाते रहे
राह हर धर्म की साथ में ही चले, राह ऐसी जगत को दिखाते रहे
समर्थन दिया सत्य को ही सदा, भाल जिससे हमारा कहीं झुक न जाये
शांति के हम पुजारी की जो साख है, रक्षित रहे कभी मिटने न पाये
रखो रोक कर आंधियां प्यार से, जलता दिया कोई बुझने न पाये
ज्ञान की ज्योति बढ़कर कुहासा हरे, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये
सम्पूर्ण जग को ही धेरे हुये है, सुनामी अनाचार अनियाउ की
ललक धन परिग्रह की इतनी प्रबल, कड़वी लगे राह सद्भाव की
डर है कभी शिष्टता छोड़कर, मानसिकता न इतनी कहीं डगमगाये
मूर्ति पावन धरा की जो मन में सजी, दिशाहीनता से सहज टूट जाये
परवरिश हर चमन की हो इस तरह, कोई अधखिला फूल झरने न पाये
ज्ञान की ज्योति बढ़कर कुहासा हरे, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये
समय आगया, हो अँधेरा जहाँ, उस तरफ भी चलें हम कदम दो कदम
निभाते रहे स्वार्थ को अब तलक, पीर औरों की भी कर सकें कुछ तो कम
अँधेरे में बिंध अब तलक जो रहा, उसे आज कोई न फिर भूल जाये
संकल्प लें आज उसके बिना, सौख्य साधन न जीवन का कोई सुहाये
आस अक्षुण रहे हम अकेले नहीं, कोई हार कर जिन्दगी न बिताये
ज्ञान की ज्योति बढ़कर कुहासा हरे, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये
श्रीप्रकाश शुक्ल
