खुली आज स्मृति मंजूषा
खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल
थिरक उठी छाया अतीत की, सुधियों में आये बीते कल
संचित यादों के झुरमुट में, आतीं उभर मिलन की बातें
बेकल हो उठता मन मयूर, देतीं चुभन चांदनी रातें
वासंती साड़ी में लिपटे, हरश्रंगार पुष्प के बूटे,
तन्वंगी काया को घेरे , जैसे रति के चित्र अनूठे
मृदु मुस्कान अधर धर, तुम कलिका सी खिलती थी
तन मन पुलक सिहर उठता, द्रुतगति श्वासें चलतीं थी
अनुरंजित वो नयन तुम्हारे, छलकते मदिरा कल कल
खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल
स्पर्श उँगलियों का पाकर, अनुप्राणित वो पत्र तुम्हारे
जब भी पाता, रख लेता था मंजूषा में एक किनारे
फिर चुपके से छुपकर पढता, नीरवता में एक एक कर
शब्द चित्र में लिपटी तुम, बस जाती पलकों के अन्दर
शब्दों की सामर्थ न जब, मन की प्यास बुझा पाती
प्रकृति बधू को आभूषित कर, पत्रांचल में सहज बिठाती
हरी वादियों में सिमटा, वो छोटा सा मिटटी का घर
युगल दीप की एक वर्तिका, गुंजित करती मन के स्वर
अब तक संभाल कर रक्खे वो, आशाएं भरे अपेक्षित पल
खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल
श्रीप्रकाश शुक्ल
खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल
थिरक उठी छाया अतीत की, सुधियों में आये बीते कल
संचित यादों के झुरमुट में, आतीं उभर मिलन की बातें
बेकल हो उठता मन मयूर, देतीं चुभन चांदनी रातें
वासंती साड़ी में लिपटे, हरश्रंगार पुष्प के बूटे,
तन्वंगी काया को घेरे , जैसे रति के चित्र अनूठे
मृदु मुस्कान अधर धर, तुम कलिका सी खिलती थी
तन मन पुलक सिहर उठता, द्रुतगति श्वासें चलतीं थी
अनुरंजित वो नयन तुम्हारे, छलकते मदिरा कल कल
खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल
स्पर्श उँगलियों का पाकर, अनुप्राणित वो पत्र तुम्हारे
जब भी पाता, रख लेता था मंजूषा में एक किनारे
फिर चुपके से छुपकर पढता, नीरवता में एक एक कर
शब्द चित्र में लिपटी तुम, बस जाती पलकों के अन्दर
शब्दों की सामर्थ न जब, मन की प्यास बुझा पाती
प्रकृति बधू को आभूषित कर, पत्रांचल में सहज बिठाती
हरी वादियों में सिमटा, वो छोटा सा मिटटी का घर
युगल दीप की एक वर्तिका, गुंजित करती मन के स्वर
अब तक संभाल कर रक्खे वो, आशाएं भरे अपेक्षित पल
खुली आज स्मृति मंजूषा, बिखर गए कुछ मीठे पल
श्रीप्रकाश शुक्ल
No comments:
Post a Comment