Wednesday 21 January 2015

जिंदगी की वाटिका में 

जिंदगी जीने चला था सिर्फ़ सुख की चाह लेकर 
यह कभी सोचा नहीं हर गुल को कांटे घेरते हैं 
जिंदगी होती नही है पुष्प सज्जित सेज केवल 
हर लम्हे को नियति के अंकुश अवसि ही फेरते हैं 

कितने झंझावात आये, जिंदगी की वाटिका में 
भयभीत हो आश्रय हिले, कांपे, मगर टूटे नहीं 
आस्था की जड़ें भी कँपकपायीं, बार कितनी 
पर संकल्प जो थे साध रक्खे वो कभी छूटे नहीं  

मानते अनुराग ही है, सुख दुःख का जन्म दाता,
पर मात्र देता कष्ट ही, अनुराग जो भौतिक रहा 
जो  समर्पण कर  सका  पूरा, जगत के ईश को 
हर बृक्ष उसका जिंदगी के बाग़ में  पुष्पित रहा  

जिंदगी उसके  लिए इक भार होकर रह गयी है  
सीखा नहीं कुछ पेड़ से, जो खड़ा बगिया में रहा 
रात दिन जिसने लुटाये फूल पत्ती फल खुले दिल 
अंत में हो खुद समर्पित  कर्म  निज करता  रहा 

अब भी समय है चेत जा जिंदगी की कर समीक्षा 
नूर की किरणें तुम्हारी कर रहीं  प्रतिपल प्रतीक्षा 
दूसरों के प्रति सदाशयता का नाता जोड़ कर चल 
भटके हुये हैं डगर जो,उनका पथ तू मोड़ कर चल  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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