Monday 16 December 2013

मेरा तो स्पर्श मात्र है 

मेरे सपनों  की  दुनियां में  
तुम अब भी आ ही जाती हो 
छूकर मुझको बार बार  
सोये अहसास जगाती  हो 

कहती, मेरा तो स्पर्श मात्र है 
फिर क्यूँ बढ़ जाती है सिहरन  ?
नच उठता मन मयूर उन्मादित  
जैसे  घिर आया पागलपन 

मन.आकुल हो जाता चिंतित, 
कैसे तुमको बहुल प्रेम दे 
जीवन के सारे सुख साधन 
लाकर आँचल में उड़ेल दे   

मेरा तो बस स्पर्श मात्र है 
यदि हाँ, तो क्यों ऐसा कंपन ?
श्वासों का प्रवाह हो गतिमय 
संयम क्यों खो देता तन मन 

उर्जस्वित हो जाता रोम रोम 
चाहे, उड़कर नभ को छू लूं 
हृद सागर तेरे नेह भरा जो, 
भर एक घूँट ,सारा पी लूं 

मुझको तेरा स्पर्श, एक 
अद्भुत मणि सा लगता है 
जो तन के हर अवयव को 
उद्वेलित कर, मद भरता है 

रूह विकल होती मिलने को 
बेताबी तड़पन में ढलती 
रीते मन की  बेज़ारी में   
रात मदभरी नहीं संभलती  

सच पूछो स्पर्श तेरे ये 
रतिवर के ही पुष्पवाण हैं  
बड़वा सी आवेशित करते
जलते जिसमें मेरे प्राण हैं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

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