Tuesday 6 August 2013

धरती के खुले पत्र पर

मात्र चार सौ वर्ष पूर्व ही, 
हम सोने की चिड़िया थे
जड़ चेतन का साथ अनूठा, 
तारतम्य सब बढ़िया थे 

शिखर वादियाँ नदी सरोवर,
विस्तृत फैले बागान अनोखे 
मुठिया थामे गीत कृषक के 
शांति समृद्धि के रहे झरोखे 

अति आत्मीया धरणि हमारी, 
प्रेरणा स्रोत और जीवनदायी 
आँचल भरे संपदा अगणित,  
आधार शक्ति पावन सुखदायी 

इस धरती के खुले पत्र पर, 
हम अनजाने क्या लिख बैठे 
संकीर्ण सोच  के बसीभूत, 
प्राणदा प्रकृति से बरबस ऐंठे 

सुख की असीम चाहत में हम,
दोहन करते रहे प्रकृति का
कभी न सोचा फल क्या होगा,
विघटन और उत्खनन अति का 

आज प्रकृति रूठी है हम से, 
धूल धूसरित सज्जा साज़ 
क्षम्य नहीं क्षण भर की देरी 
चिंतन कर बदलें अंदाज़  

श्रीप्रकाश शुक्ल 

No comments:

Post a Comment