Thursday 23 May 2013


सहायक सन्दर्भ : निम्न चित्रण संभवतः आधुनिक पीढ़ी की समझ से परे हो, पर गाँव के जीवन से परिचित 1950 के आस पास जन्मे लोग समझ सकेंगे कि  उस समय गावों में महिलाओं की जीवन शैली क्या थी और कौन कौन से कार्य उनके सुपुर्द थे । 
ये रचना 40 वर्ष पुरानी है

मातृदिवस है याद आयी माँ सकल गुणों की जो थी खान 
 झर झर अश्रु बहे आँखों से कर माँ का  वैवश्य अनुमान  

आटे के दो मटके

पौ फटने से घंटों पहले  माँ सोकर उठ जाती थी
आटा पीस हाथ चक्की से, मटके भरती जाती थी 
मटके संग्रह के साधन जिनमें खाद्यान भरे जाते थे 
एक दूसरे के ऊपर रख पंक्ति बद्ध सजते जाते थे 

घर में माँ की सासू थी जो अपना राज्य चलाती थीं   
थीं तो सौम्य सरल लेकिन माँ से यों ही अनखातीं थीं 
इक दिन माँ ज्वर से पीड़ित काँप रही थी थर थर 
खुद ही कुछ औषधि ले लुढ़क रही कमरे के अन्दर  

बाबा  घर  आये  बोले क्यों खाना  बना नहीं अब तक 
दादी बोली कैसे बनता आटा न रहा चुटकी भर जब तक 
उबल रही माँ अन्दर बाहर सब कुछ सुनती जाती थी 
कैसे क्या उत्तर दे पाए साहस  नहीं जुटा पाती थी   

कुछ क्षण तो माहौल शांत था फिर भूकम्पी झटके थे 
आटे से भरे हुए मटके दो ला, माँ ने आँगन में पटके थे 
दादी जी चुप चाप खड़ी  थीं बोल हलक में अटके थे 
बाबा जी गर्दन नीची कर  चुपके  से बाहर सटके थे 

चौदह वर्षीय उम्र में जो बालिका बधू बन  आई थी   
अदम्य साहस की प्रतिमा थी रोम रोम सच्चाई थी  
माँ ने हमें सिखाया बेटा दिया काम जमकर  करना 
पर कोई असत्य बोले तो मटके फोड़ सामने धरना 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
 



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