Thursday 21 March 2013


बोल हैं कि वेद की ऋचाएं हैं 

तुलसी के मानस में झाँक कर देखा आज
   पत्नी वियोग में भगवान राम रोते हुए  
        पूछते लताओं से सीते को देखा क्या
           तुमसे कुछ कह सकी धैर्य को संजोते हुए  

 सागर की  महिमा को राघव ने मान दिया 
   सरिता तट जाकर सरयू को प्रणाम किया 
      गोबर्धन पूजा करते, सूर्य को चढ़ाते अर्घ्य 
         भारत ने सदा ही प्रकृति मय जीवन जिया 

प्रकृति को मानते हैं पुरुष की जननी सभी 
   भारत में मानते है माँ सामान पूज्या 
     पोषण भरण जो करती रही स्वार्थ रहित 
       जन जन के ह्रदय में रही बन के आराध्या 
              
प्रकृति के उपकार सकल स्वीकारते हैं, 
 पच्छिमी  भी,संज्ञा देकहते हैं कार्बन ऋण 
      रचते उपक्रम अनेक, जैसे भी होसके 
          प्रकृति के औदार्य से हो सकें सब उऋण  

भारत के चिंतकों की बात ही अनूठी सी 
  लोक गीत, ग्रन्थों भरी जो अभिव्यंजनायें हैं   
     कितना ही प्रयास करो समझ नहीं पाओगे 
          अनुभूतियों के बोल हैं कि वेद की ऋचाएं हैं 

श्रीप्रकाश शुक्ल 


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