Tuesday 4 September 2012


स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में

स्वर्ण श्रंखला के बंधन में, जकड़े मात्र प्रलोभन सब को 
जैसे कूकर, घट के मुंह में, ग्रीवा डाल, ना छोड़े गुड को 
मोह,सुरक्षा,सुख साधन का,दिन प्रतिदिन गहराता जाता 
अनुचित उचित बिना सोचे,हर एक परिग्रह में जुट जाता

इतिहास साक्षी है ये बंधनरचता रहा अनेकों कृतियाँ  
इसकी उर्बरा शक्ति से उपजीं,अहंकारमददर्प प्रवृत्तियां
इन आसुरी प्रवृत्तियों ने कीबुद्धी भ्रमितआस्था नश्वर
बंधक लगा समझने खुद को जगत रचियता से भी बढ़कर

अतिशय धन पाकर जीवन का,सच्चा सुख जाता है छिन
मदहोसी दे, वो दर्द मिटाता, भरता जो खाली जीवन
स्वेच्छा से बंधना चाहो, तो बंधो प्यार के बंधन में
ओरों को दे प्यार, सही उद्देश्य भरो अपने जीवन में 

प्यार एक स्थिति है जिसमें, औरों का सुख, खुद का सुख है
जीवन आनंदातिरेक करता, वाकी तृष्णा दुःख ही दुःख है
निर्भरता, वैभव सुख साधन पर, सदा रही दुःख दायी है
स्वर्ण श्रंखला के बंधन में बंध, किसे शांति मिल पायी है
श्रीप्रकाश शुक्ल
Mahipal Singh Tomar
आ.श्री श्री जी , यह वाक्यांश-पूर्ति ,तमाम प्रेरक तत्वों को समाहित किये हुए बड...
Aug 30 (6 days ago)

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