शब्दों के सब अर्थ बदल कर
सच्चे सीधे भाव ह्रदय के, शब्दों की आकृति में ढलकर,
बिन प्रयास ही सहज रूप, अपने गंतव्य पहुँच जाते हैं
पर जब हो भावना ग्रसित, किसी दुराग्रह के चंगुल में
शब्दों के सब अर्थ बदल, स्थिर मंतव्य बिखर जाते हैं
मन में पलती चाह, सभी को प्रेम सूत्र में बाँध रखूँ ,
और इसी को पूरा करने, अपनी बाहें फैलाते हम
पर बाहों के आलिंगन की, पकड़ सदा ढीली रहती
सीने अपने से सटा अहम् का पत्थर, नहीं हटा पाते हम
धर्मराज से ज्ञानी ध्यानी, अर्थ अनर्थ समझ ना पाए
शब्दों के फंस विषम जाल में, गुरू द्रोण ने प्राण गंवाए
शब्दों के सब अर्थ बदल, अनगिन घटना क्रम रचे गए
पग सीमा अव्यक्त रही, जब राजा बलि थे छले गए
सदियों पहिले लिखे गए, जो मूल्य शाश्वत सूक्तों में
वो अब भी जीवंत खड़े हैं, ओढ़े केवल आवरण नया
शब्दों के सब अर्थ बदल कर, फिर से परिभाषित होकर
जीव, जगत को दिखा रहे हैं, जीने का इक पंथ नया
क्या अपेक्ष्य है, जिससे बगिया सुरभित हो संबंधों की,
कैसे खर पतवार छाँट, शुचि कोमल सुमन बचा पायें
सुरभेदी भाषाओं जैसे, शब्दों के सब अर्थ बदल कर
सोचें, कैसे अर्थ, सार्थक सोच सभी तक पंहुंचा पायें
श्रीप्रकाश शुक्ल
सच्चे सीधे भाव ह्रदय के, शब्दों की आकृति में ढलकर,
बिन प्रयास ही सहज रूप, अपने गंतव्य पहुँच जाते हैं
पर जब हो भावना ग्रसित, किसी दुराग्रह के चंगुल में
शब्दों के सब अर्थ बदल, स्थिर मंतव्य बिखर जाते हैं
मन में पलती चाह, सभी को प्रेम सूत्र में बाँध रखूँ ,
और इसी को पूरा करने, अपनी बाहें फैलाते हम
पर बाहों के आलिंगन की, पकड़ सदा ढीली रहती
सीने अपने से सटा अहम् का पत्थर, नहीं हटा पाते हम
धर्मराज से ज्ञानी ध्यानी, अर्थ अनर्थ समझ ना पाए
शब्दों के फंस विषम जाल में, गुरू द्रोण ने प्राण गंवाए
शब्दों के सब अर्थ बदल, अनगिन घटना क्रम रचे गए
पग सीमा अव्यक्त रही, जब राजा बलि थे छले गए
सदियों पहिले लिखे गए, जो मूल्य शाश्वत सूक्तों में
वो अब भी जीवंत खड़े हैं, ओढ़े केवल आवरण नया
शब्दों के सब अर्थ बदल कर, फिर से परिभाषित होकर
जीव, जगत को दिखा रहे हैं, जीने का इक पंथ नया
क्या अपेक्ष्य है, जिससे बगिया सुरभित हो संबंधों की,
कैसे खर पतवार छाँट, शुचि कोमल सुमन बचा पायें
सुरभेदी भाषाओं जैसे, शब्दों के सब अर्थ बदल कर
सोचें, कैसे अर्थ, सार्थक सोच सभी तक पंहुंचा पायें
श्रीप्रकाश शुक्ल
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