Monday, 30 April 2012

कोई अपना यहाँ


नाते रिश्ते, सभी आज हैं, खोखले,
स्वार्थ की नींव पर, जो गए थे चुने
भावनाओं का निर्झर, बहा ही नहीं ,
शब्द के जाल, बिछते रहे नित घने

हर दिल में भरा है, घृणा का धुंआ
किसको,कैसे,कहे कोई अपना यहाँ



धन परिग्रह में हर व्यक्ति ऐसा जुटा,
जिन्दगी का सही अर्थ ही खोगया
दूसरों की ख़ुशी में जो पाए ख़ुशी,
ऐसा मर्दुम नदारत सा ही, होगया

दर्द महसूसें ओरों का, फुर्सत कहाँ
किसको,कैसे, कहे कोई अपना यहाँ


कुछ हवा ऎसी चलती, नज़र आरही,
दूसरों को दुखी देख, फरहत मिले फरहत =ख़ुशी
प्रीति का भोज बढ़ चढ़ के दे ज़ायका,
जब पड़ोसी के घर में ना चूल्हा जले

लहर विश्वास की, जी, ना पाए जहाँ
किसको,कैसे,कहे कोई अपना यहाँ

विरासत में पाए थे जो संस्करण,
अहम की तुष्टि में सब हवन कर दिए
ईर्षा का कुहासा रहा पौढ़ता,
बारी बारी बुझे ज्ञान के सब दिए


प्रणय प्यास बुझना है सपना यहाँ
किसको,कैसे,कहे कोई अपना यहाँ


कौन सी ले मुरादें हम आये यहाँ ?
क्या कोई ऐसा चिंतन संभारा कभी
कैसे दुनिया हो रोशन, बलंदी चढ़े,
क्या कोई ऐसा ज़रिया विचारा कभी ?

सब हों सुखमय, बधें प्रेम की डोर में
कह सकेंगे तभी, सब हैं अपने यहाँ


श्रीप्रकाश शुक्ल



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Saturday, 28 April 2012

आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


भागीरथी प्रयासों से, पोषित कर एहसासों को,
  जीवन में संतुलन हेतु , मानव संबध बनाते हैं
      पर औचित्य ताक पर रख, दुराग्रह के बसीभूत,
        किसलय के ये मृदुल पत्र, भेंट अहम् की चढ़ जाते हैं

चूर चूर हो जाते सपने , टूट गए हों दर्पण ज्यों,
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


भूल चूक हर जीवन की, निश्छल सहज प्रवृत्ति है,
   पर यथासमय संशोधन की, मानव में अद्भुत शक्ति है
      इसे भूलकर हममें से कुछ, सहज पालते वैमनस्य,
         आत्म प्रदर्शन की चाहत में, अड़ियल रुख अपनाते हैं


आतंक पौढ जाता समाज में, तानाशाई शासन ज्यों
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


आदिकाल से ही भूतल पर, हठधर्मिता रही हावी ,
  ज्ञानी भी खो वैठे प्रज्ञा, इसके चंगुल में फंसकर
    विश्वामित्र सरीखे मुनिवर, भूल प्रकृति की सीमाएं
      पाने बैठे लक्ष्य असंभव जो थे, अस्वाभाविक दुस्कर


औंधे मुंह अधर में लटके, दिखते नहीं त्रिशंकु क्यों
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


क्या दुर्योधन को पार्थ कृष्ण का पौरुष ज्ञात नहीं था
  या सबक राजधर्मिता का गुरुजन से पढ़ा नहीं था
     ये तो सब था ही लेकिन, था नशा शक्ति का चढ़ा हुआ
        था नियति हेतु दुर्मेधा का पर्दा आँखों पर पड़ा हुआ


निश्चित ही विनाशकाले, हो जाती भृष्ट सुबुद्धि ज्यों
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


दम्भ्जनित मत आग्रह के, परिणाम सदा ही रहे दुखद
  गृहयुद्ध छिड़े, विद्ध्वंस हुए, जीना दूभर हो गया निरापद
     फिर भी कुछ ना सीख मिली, अंतस में हम ना झांक सके
        आसुरी प्रवत्तियों से आवृत, जीवन का मूल्य ना आँक सके


अविवेकपूर्ण स्थिति से उपजी, ये सारहीन सरगर्मी क्यों
आखिर ये हठधर्मी क्यों ?


श्रीप्रकाश शुक्ल


शब्दों के सब अर्थ बदल कर


सच्चे सीधे भाव ह्रदय के, शब्दों की आकृति में ढलकर,
  बिन प्रयास ही सहज रूप, अपने गंतव्य पहुँच जाते हैं
     पर जब हो भावना ग्रसित, किसी दुराग्रह के चंगुल में
       शब्दों के सब अर्थ बदल, स्थिर मंतव्य बिखर जाते हैं

मन में पलती चाह, सभी को प्रेम सूत्र में बाँध रखूँ ,
  और इसी को पूरा करने, अपनी बाहें फैलाते हम
     पर बाहों के आलिंगन की, पकड़ सदा ढीली रहती
        सीने अपने से सटा अहम् का पत्थर, नहीं हटा पाते हम

धर्मराज से ज्ञानी ध्यानी, अर्थ अनर्थ समझ ना पाए
   शब्दों के फंस विषम जाल में, गुरू द्रोण ने प्राण गंवाए
      शब्दों के सब अर्थ बदल, अनगिन घटना क्रम रचे गए
         पग सीमा अव्यक्त रही, जब राजा बलि थे छले गए

सदियों पहिले लिखे गए, जो मूल्य शाश्वत सूक्तों में
   वो अब भी जीवंत खड़े हैं, ओढ़े केवल आवरण नया
     शब्दों के सब अर्थ बदल कर, फिर से परिभाषित होकर
         जीव, जगत को दिखा रहे हैं, जीने का इक पंथ नया

क्या अपेक्ष्य है, जिससे बगिया सुरभित हो संबंधों की,
  कैसे खर पतवार छाँट, शुचि कोमल सुमन बचा पायें
    सुरभेदी भाषाओं जैसे, शब्दों के सब अर्थ बदल कर
       सोचें, कैसे अर्थ, सार्थक सोच सभी तक पंहुंचा पायें



श्रीप्रकाश शुक्ल


करना होगा लेकिन प्रयास


यद्यपि सर्वथा असंभव है, प्रतिबंधित करना वायु वेग,
   पर प्रज्ञा से जीवन तरनी का, पाल मोड़ सकते हैं हम
      सम्भव है असफलता आकर, लक्ष्य द्वार पर दस्तक दे,
         पर धैर्य और साहस बटोर, अवरोध तोड़ सकते हैं हम


विषम परिस्थितियों के धागे, जाते उलझ सहज जीवन में,
   पर संयम से गिरह खोल, बंधन सुलझाये जा सकते हैं
     अभिलाषित मंजिल जब भी, होती दिखे पहुँच के बाहर,
       तृषित काक की तरह ढूंढ, संसाधन लाये जा सकते हैं

निष्क्रिय जीवन यापन, कोई जीने की रीति नहीं,
  हरकत से ही बरकत है, यह सूत्र सदा रंग लाया है
    सतत प्रयत्नों के रहते, हर इक उपलब्धि सम्भव है,
      आलसी व्यक्ति ने रो रोकर, होनी को दोषी ठहराया है


दृण संकल्प धार कर जो भी, कर्म क्षेत्र में जाएगा
  निश्चित है परिमाण अपेक्षित, निकल अंतत: आएगा
    करना होगा लेकिन प्रयास, तब ही कुछ बन पायेगा
      सोते हुए सिंह मुख में, मृग-शावक कभी न जाएगा

श्रीप्रकाश शुक्ल



अपनी अपनी सीमाएं हैं

ज्ञान, कल्पना और प्रेम के ,भंडार अपरिमित संभव हैं,
    पर उनके प्रेषण, अधिग्रह की अपनी अपनी सीमायें हैं
        कारुण्य, धैर्य , संवेदन की अनुभूति असीमित संभव है,
           पर इनके प्रतिगमन क्रिया की प्रतिबंधित क्षमताएं हैं

सामाजिक जीवन में मानव का हर एक कदम आँका जाता
  अग्रिम पद की दशा, दिशा क्या, प्रतिफल पर निर्भर हो पाता
      मानव प्रमाद के वसीभूत, जब भी निर्धारित परिधि तोड़ता
         सहज प्रवाहित जीवन नौका, अवरोधों के मध्य छोड़ता

मानव क्या पशु पक्षी भी सामंजस्य खोजते संवंधों में
     सीमाबद्ध आचरण कर, भरते मिठास अनुबंधों में
         सुमति सोच, सार्थक विवेक, जीवन में खुशियाँ भरता
            असफलता रहती ठगी ठगी, जीवन यापन सुचारू चलता





श्रीप्रकाश शुक्ल