कितना प्यार तुम्हें करता हूँ
पावों की पैंजन की रुन झुन,
दवे पाँव चौके से चल,
मेरी खिड़की के द्वार खोल,
चुम्बन सी करती कपोल,
आ सहलाती कर्ण युगल ;
अधखुली उनींदी आंखे मल,
अलसाए तन को बटोर
ले प्राण तुम्हारा मधुर नाम,
मैं पग धरती पर धरता हूँ
कितना प्यार तुम्हें करता हूँ
प्राची की इक अरुण किरण सी,
अभिलाषा भर आँचल में
अधिकार सहित तुम कर प्रवेश
मेरे अंतस के हर अणु में,
अधबुझी प्यास
अनुरत अधरों की,
बरबस उड़ेल ही देती हो ;
तुम, अभिमान मेरे प्राणों की,
तुम पर निसार सब कुछ करता हूँ
कितना प्यार तुम्हें करता हूँ
अध्ययन को पुस्तक जब खोलूँ,
शब्द शब्द धूमिल होते ,
ना जाने क्यों , बेचैन नयन
अपनी चेतन प्रज्ञा खोते
प्रष्ठ प्रष्ठ पर दिखती हो तुम,
मुझको करती सी प्रणाम ;
बस पुस्तक फेंक,
घेर हाथों में,
तुम्हें अंक में भरता हूँ
कितना प्यार तुम्हें करता हूँ
श्रीप्रकाश शुक्ल
यह गार्हस्थ प्रेम ही संसार में सुख-शान्ति का आधार है. आत्मा को तृप्त और मन को आनन्दित करनेवाला !
ReplyDeleteसुखद कविता.