Thursday 14 July 2011

कथ्य सन्दर्भ : भट्टा परसौल उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर में एक छोटा सा गाँव है . यहाँ किसानों की भूमि शासन द्वारा सस्ते मूल्य में लेकर ठेकेदारों को दे दी गई , न्याय मांगने पर उन पर लाठियां बरसायी गयीं .


आग अपने राग में भर


परसौल भट्टा की कहानी, बंद आँखें खोलती है
कहर खुद ढाती सियासत, अमन में विष घोलती है
जो थे समर्थक सत्य के, सत्ता के हाथों बिक गये
गगनभेदी स्वरों के भी, मुंह में ताले लग गये


पास में बस एक था, भूमि का निष्प्राण टुकड़ा
जिसमें गलाकर अस्थि-मज्जा, अन्न के दाने उगाते
और कोई भी नहीं, उपलब्ध था साधन सुलभ,
भूख जिस से शांत कर , निर्वसित तन ढांक पाते


कौड़ियों के मोल जब, छीनी गयी ये जीविका
और दुहाई न्याय की, लाठियां खाती रही
जूं न रेंगा कान पर, द्रौपदी की चीख सुन
पट्टी संभाले आँख की, सौबली गाती रही

सहसा उठा उद्गार मन में, इक नई हुंकार भर,
वेदना असहाय की, जो कह न पाए हो निडर
वो कापुरुष है, कवि नहीं, व्यर्थ माँ शारद का वर
धिक्कार उसकी चेतना, दाब से जो जाए डर

अब समय आया अपेक्षित, समय को पहचान ले
अवलेखनी बदलेगी दुनियां, ऐसा निश्चित मान ले
कवि धर्म का निर्वाह तब, अशआर छेड़ें नया स्वर
अन्याय धू धू जल उठे, तूं आग अपने राग में भर

श्रीप्रकाश शुक्ल

1 comment:

  1. दीन-हीनों की व्यथा की कथा ही कविता बनी है.
    मार्मिक रचना हेतु आभार.

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