Friday, 13 August 2010

मन में दृढ विश्वास लिए



राष्ट्र विभाजक अभिरुचियाँ, पनप रहीं हैं दिन प्रति दिन
जाति धर्म पर बट जाने के, परिलक्षित हो रहे शकुन
संकीर्ण विचारों में लथपथ हम, अपनी प्रज्ञा खोये हैं
सौहार्द्र प्रस्फुटित हो न सके, हम ऐसे बीज बोये हैं


हम अभिलाषी, हर भारतीय, जीवन गौरव पूर्ण जिए
सार्थक कदम उठाने होंगे, मन में दृढ विश्वास लिए


हमें भरोसा अपने बल पर, और सहिष्णु मानवता पर
शांति अहिंसा मंतव्यों पर, ज्ञानं कला की क्षमता पर
दिशा जगत को हम देंगे, बन विशाल, विकसित अजेय
समता और बंधुत्व बनेगा, सारे जग का एक ध्येय


आसुरी प्रबृत्तियों के विरुद्ध, जन जन जागृत, संगठित किये
निज देश सृजन हित होंगे तत्पर, मन में दृढ विश्वास लिए


श्रीप्रकाश शुक्ल
मिसिगन ( यू एस ए)
१३ अगस्त २०१०

Sunday, 1 August 2010

प्रतिभाओं की कमी नहीं



विश्व भाल, चन्दन बिंदी सम, शोभित अपना सुन्दर देश
धर्म,वर्ण, वर्गीय विविधिता ,पाती जिसमें सम समावेश
विज्ञान,कला, साहित्य दक्षता, मिली हमें पैत्रिक धन में
प्रतिभाओं की कमी नहीं, किलक रही हर घर आंगन में

जन्मजात या फिर श्रम से, प्रतिभा चाहे समुचित निखार
गौरव,मान,स्तुति मिलकर, भरते कुशाग्रता, बल अपार
पांडित्य प्रखर भारत भू का, प्रतिभाओं की कमी नहीं
संतप्त हुआ जब भी समाज, बौछार ज्ञान की थमी नहीं


जब भी कहीं विश्व भर में, कष्टों के बादल छाते हैं
भारत के भावुक सरल हृदय, संवेदन से भर जाते है
प्रतिभापूर्ण प्रखर दिनकर, देदीप्य रश्मियाँ फैलाते हैं
निष्काम भाव से, निज हित तज, हम सदमार्ग दिखाते हैं

यह धरती जननी उस मेधा की,जिसमें निहित देश हित हो
जन कल्याण भावना प्रेरित,युग निर्माण बीज मिश्रित हो
वसुधैव कुटुम्बकम से बढ़कर , उक्ति कोई भी जमीं नहीं
जग हिताय सब कुछ अर्पण,यहाँ प्रतिभाओं की कमी नहीं


श्रीप्रकाश शुक्ल
२८ जुलाई २०१०
बोस्टन  

स्वत्व


क्यों खोते हम
मन की शांति
क्यों पालते
भय और भ्रांत,
दूसरो का
आंकलन,
नियंत्रण,
और
स्वत्व
ही होते
प्रमुख अभियुक्त
प्रतिक्रिया
स्वाभाविक है
लेकिन
क्यों न हम
सोच सकते
जैसा
वो सोचते हैं
क्यों न हम
अनुभव करते
जैसा वो
अनुभव करते हैं
और यह
स्वाभाविक ही


श्रीप्रकाश  शुक्ल 
बोस्टन  

Wednesday, 21 July 2010

मान्यवर, एक रचनाकार को किन किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए क्या क्या सुनना पड़ता है और क्या मनोदशा होती है यहाँ चित्रण करने का प्रयास I कृपया प्रतिक्रिया अवश्य दें




सृजन यज्ञ


हे कवि हे सृजनकार,
जो मूल्य संजोये शिष्टि में
उनको कर परिलक्षित तूं ,
अपनी करुनामय दृष्टि में
दुर्भाव, धृष्टता भरे समीक्षण
अनगिन अवरोधन लायेंगे
मित्रों के ईर्षा भरे अनुसरण,
दर्दीला बिष फैलायेंगे
नीलकंठ बन यह सब तुमको,
शांत भाव पी लेना है
आलोचक के प्रत्योत्तर में,
होंठों को सी लेना है
यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर
कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़


श्रीप्रकाश शुक्ल

Wednesday, 14 July 2010

सैनिक और कवि




हे सैनिक,जन्म जात तूं,
सार्थक मूल्यों में गढा गया
देश, धर्म संरक्षण को,
दृढ़ता से उनमें जड़ा गया

सम्भव नहीं भुलाना उनको,
आत्मसात हो, पैठे गहरे
नहीं समझ पायेगा तूं,
छुपे मुखौटे ,नकली चहरे

सीमा से हटकर रहने में,
अनगिन अवरोधन आयेंगे
विद्वेष, ईर्षा भरे भाव,
दुर्द्धर बिष फैलायेंगे

नीलकंठ बन यह सब तुमको,
हंस हंस कर पी लेना है
धैर्य असीमित संचित कर,
निज होंठों को सी लेना है

यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर

कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़



श्रीप्रकाश शुक्ल
१४ जून २०१०









आप के साथ हैं हम


जब पराये देश,
घर से दूर,
किसी शाम
मन होता है उदास
और कोई अपना नहीं होता आस पास
कुरेदने लगता है शीतल समीर
दिल हो जाता है और भी अधीर
उमड़ते, घुमड़ते मेघों की टोली
आ बैठती है आँखों की कोरों पर
और सहसा झरने लगती है अश्रु धार
तब लगता है कि कोई अपना
याद कर रहा है,
शब्दों के पार हैं भाव , भावों के पार है आत्मन
आत्मन की पहुँच है अनंत
तभी तो आप सभी के साथ हैं हम चिरंतन और अनंतर
बात बस इतनी सी थी


मैं चकित, हैरान हूँ, इस अंध मोहासक्ति से
सौंदर्य के प्रति तुम्हारी, दुर्विजित आसक्ति से
यह देह तो नश्वर, अचिर, हर व्यक्ति का परिधान है
इसमें रमाना मन, ह्रदय को, सर्वथा अज्ञान है
यदि लगाते लगन इतनी, ईश से, जगदीश से
भ्रान्ति, भय मिटते ह्रदय के, दिव्य शक्ति आशीष से
बात बस इतनी सी थी, पर ह्रदय में घर कर गयी
शूल सी चुभती हुयी, विक्षोभ मन में भर गयी
छोड़कर घर द्वार सारा ,मार्ग पकड़ा भक्ति का
प्रभु राम की गाथा गढ़ी, कौशल चरम अभिव्यक्ति का
और भी कृतियाँ रची, आनंद स्रोत जो बनी
भावपूरित,रस समाहित, नव, विमल निर्झर घनी
सर्वथा अभिभूत जन मन, राम भक्त शिरोमणि
शत शत नमन है हुलसिनन्दन, सुकवि कुल चूड़ामणि


श्रीप्रकाश शुक्ल
१२ जुलाई २०१०
शिकागो






बात बस इतनी सी थी

आपको खाना बनाना आता है क्या?
नहीं, और आपको ?
मुझे ? मैं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी

बहू कहाँ जा रही हो ?
कब तक आओगी ?
अरे तुमने माँ को बताया क्यों नहीं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी

अरे घर तो ठीक नहीं है
हर जगह कबाड़ फैला है
तो करते क्यों नहीं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी

श्रीप्रकाश शुक्ल
१२ जुलाई २०१०
शिकागो