Friday 1 April 2011

भाषा और कथानक दोनों, अब बिलकुल स्पष्ट हैं




पिछले चौसठ वर्ष बिताये, हमने ऊहापोह में
सह अस्तित्व, शांति से जी लें, रहे सदा इस टोह में
पर ओ मेरे, देश पडोसी, तुमने सदा ईर्ष्या पाली
अविश्वास की आग जला, राख करी अपनी ख़ुशहाली


जब जब हमने बांह पसारी, हाथ दोस्ती का माँगा
तब तब तुमने छुरा भोंक कर, पीठ हमारी को दागा
एक तुम्ही हो बिन कारण जो, बीज घृणा के निशदिन बोते
आतंरिक समस्यायों के भी हल, तुमको नहीं सुलभ होते


भाषा और कथानक दोनों, अब बिलकुल स्पष्ट हैं
प्रतिद्वंदिता भरी हृदयों में, भाव प्रेम के नष्ट हैं
पर हम शुभचिंतक, शुभेच्छु, सत सम्मति निश्छल देंगे
पंचशील के सिद्धांतों को कालांतर तक बल देंगे



श्रीप्रकाश शुक्ल

1 comment:

  1. श्रीप्रकाश जी ,
    कविता में सत्य व्यक्त हुआ है ,और संदेश भी सुन्दर है .पर चाणक्य-नीति ,और 'शठंशाठ्यं समाचरेत' भी याद कर लीजिये ,और भी- 'खल सन विनय कुटिल सन प्रीती ' व्यावहारिकता में कितनी खोखली सिद्ध होती है !जब कठोर कदम उठाने का समय हो उस समय ढील देना सबसे बड़ी मूर्खता है जो हमारे यहाँ बड़ी शान से की जाती है

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