Wednesday 29 September 2010

समय का फेर

युग युग से मिलता बोध यही
      काल चक्र है, काल जयी
            इसके निर्देशों पर नाचे
                 ऋषि, मुनि, दैत्य, देव सब ही

समय चक्र चल रहा अनवरत
      प्रकृति और मानव गतिविधि में
           सुख दुःख आते जाते क्रमवत
                 बदले जैसे मौसम हर ऋतु में

समझ समय का फेर इन्हें
     जो सामंजस्य बिठा पाता
           समभाव युक्त, मुक्त चिंता
                 से, जीवन सुखद बिता पाता

सब से सुलभ यही पथ है
     कर्ता न कभी खुद को मानो
           नैसर्गिक है जो भी घटता
                 प्रकृति रच रही है सब, जानो

1 comment:

  1. आदरणीय श्रीप्रकाश जी,

    आपसे एक परिचय तो ई-कविता के माध्यम से हुआ है लेकिन यह पहला अवसर है कि आपसे संवाद स्थापित कर पा रहा हुँ, यूँ तो ई-कविता का सदस्य होने के बावजूद भी अपने याहू खाते में किसी त्रुटि की वजह से कोई भी टिप्पणी नही भेज पाया।

    कविता का क्लासिकल अंदाज बहुत पसंद आया।

    आगे भी पढ़ते रहना है बिखरी अनुभूतियों को न जाने क्या क्या समेटा है आपने समय के साथ।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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