दिशा निर्धारण
ऋषि मुनियों की पावन भू पर
धन्य हुए हम जीवन पाकर
सार्थक मूल्यों के आँचल ने
बढा किया सब को दुलराकर
जिस जगती पर गर्व हमें था
सच्चे, शुचि व्यवहारों का
आज वहां पर जमघट दिखता
चोर, उचक्के, आवारों का
छीन रहे इस भू के जाए
खुद अपनों के शांति और सुख
लूट खसोट और अर्थ परिग्रह
जीवन के उद्देश्य प्रमुख
सत्ता के मैले हाथो से
हाथ मिला पा रहे सहारा
इनकी गतिविधियां शर्मनाक
घर समाज आतंकित सारा
भद्र, प्रतिष्ठित,समाज सेवी,
शासन के प्रतिनिधि, संरक्षक
माया की लोलुपता में फंस
आज बन गए समाज भक्षक
कहाँ खोगये मूल्य हमारे
कहाँ खो गयीं निधियां शाश्वत
पाश्चात्य हवाओं के झोंकों से
संभवतः हम हुए पदच्युत
अभी समय है, खोज स्वयं को
दिशा एक निर्धारित करलें
पंक्ति अंत में खड़े हुए जो
उनके संरक्षण का प्रण लें
श्रीप्रकाश शुक्ल
०१-०१-११
Friday, 31 December 2010
कुंठित चेतना
कुंठित पड़ी चेतना अब तक, शब्द नहीं सज पाते हैं
विगत बर्ष के अंतिम दिन, नहीं भुलाए जाते हैं
शब्द रतन और राजा जैसे , खो बैठे अपनी गरिमा
उपनामों की संज्ञा में, नहीं चाहती अब कोई माँ
वीर सिंह से युद्ध वांकरे, पीठ दिखा कर भाग लिए
वर्षा आयी बिन जीवन रस , संस्कारों की राख लिए
मन मोहन रस लीला रंग में, खुद ही इतने मस्त हुए
पूतना पी गयी सागर सारा, ऐसे वो आश्वस्त हुए
छाई हुयी कालिमा इतनी कैसे यह मिट पाएगी
उषा किरण अब ग्यारह की क्या कुछ भी कर पाएगी
नए वर्ष में हम सब जुटकर ऐसा इक सकल्प करें
स्वच्छ कर सकें धूमिल छवि, ऐसा एक विकल्प धरें
श्रीप्रकाश शुक्ल
कुंठित पड़ी चेतना अब तक, शब्द नहीं सज पाते हैं
विगत बर्ष के अंतिम दिन, नहीं भुलाए जाते हैं
शब्द रतन और राजा जैसे , खो बैठे अपनी गरिमा
उपनामों की संज्ञा में, नहीं चाहती अब कोई माँ
वीर सिंह से युद्ध वांकरे, पीठ दिखा कर भाग लिए
वर्षा आयी बिन जीवन रस , संस्कारों की राख लिए
मन मोहन रस लीला रंग में, खुद ही इतने मस्त हुए
पूतना पी गयी सागर सारा, ऐसे वो आश्वस्त हुए
छाई हुयी कालिमा इतनी कैसे यह मिट पाएगी
उषा किरण अब ग्यारह की क्या कुछ भी कर पाएगी
नए वर्ष में हम सब जुटकर ऐसा इक सकल्प करें
स्वच्छ कर सकें धूमिल छवि, ऐसा एक विकल्प धरें
श्रीप्रकाश शुक्ल
एक मूर्ति माटी की
कच्ची माटी से बनी,
अनेकों आकार लेती है वो,
बेटी, बहिन, माँ और
पत्नी रूप में निश्वार्थ,
सर्वश्व देती है वो,
पर जब
अन्यायों की झुलस,
आत्मग्लानि की आग
उसे तपाती है
तो वो पक जाती है
फिर आकारों में न ढलके
या तो टूट जाती है
या फिर फौलादी खंजर बन,
समाज के दरिंदों के समक्ष
आ खड़ी होती है
निर्भीक, चंडी सम, सहज ही उतारकर,
वो सुकोमल,सौम्य,
शालीनता का परिधान.
और हम देखते हैं नारी का
एक और रूप,विकृत रूप
जो स्वभावतः नहीं होता.
कौन उत्तरदायी है इस रूप का,
हम केवल हम
काश हम समझ पाते
और रोक पाते इस
अनावश्यक बदलाव को .
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
कच्ची माटी से बनी,
अनेकों आकार लेती है वो,
बेटी, बहिन, माँ और
पत्नी रूप में निश्वार्थ,
सर्वश्व देती है वो,
पर जब
अन्यायों की झुलस,
आत्मग्लानि की आग
उसे तपाती है
तो वो पक जाती है
फिर आकारों में न ढलके
या तो टूट जाती है
या फिर फौलादी खंजर बन,
समाज के दरिंदों के समक्ष
आ खड़ी होती है
निर्भीक, चंडी सम, सहज ही उतारकर,
वो सुकोमल,सौम्य,
शालीनता का परिधान.
और हम देखते हैं नारी का
एक और रूप,विकृत रूप
जो स्वभावतः नहीं होता.
कौन उत्तरदायी है इस रूप का,
हम केवल हम
काश हम समझ पाते
और रोक पाते इस
अनावश्यक बदलाव को .
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
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