दिशा निर्धारण
ऋषि मुनियों की पावन भू पर
धन्य हुए हम जीवन पाकर
सार्थक मूल्यों के आँचल ने
बढा किया सब को दुलराकर
जिस जगती पर गर्व हमें था
सच्चे, शुचि व्यवहारों का
आज वहां पर जमघट दिखता
चोर, उचक्के, आवारों का
छीन रहे इस भू के जाए
खुद अपनों के शांति और सुख
लूट खसोट और अर्थ परिग्रह
जीवन के उद्देश्य प्रमुख
सत्ता के मैले हाथो से
हाथ मिला पा रहे सहारा
इनकी गतिविधियां शर्मनाक
घर समाज आतंकित सारा
भद्र, प्रतिष्ठित,समाज सेवी,
शासन के प्रतिनिधि, संरक्षक
माया की लोलुपता में फंस
आज बन गए समाज भक्षक
कहाँ खोगये मूल्य हमारे
कहाँ खो गयीं निधियां शाश्वत
पाश्चात्य हवाओं के झोंकों से
संभवतः हम हुए पदच्युत
अभी समय है, खोज स्वयं को
दिशा एक निर्धारित करलें
पंक्ति अंत में खड़े हुए जो
उनके संरक्षण का प्रण लें
श्रीप्रकाश शुक्ल
०१-०१-११
Friday, 31 December 2010
कुंठित चेतना
कुंठित पड़ी चेतना अब तक, शब्द नहीं सज पाते हैं
विगत बर्ष के अंतिम दिन, नहीं भुलाए जाते हैं
शब्द रतन और राजा जैसे , खो बैठे अपनी गरिमा
उपनामों की संज्ञा में, नहीं चाहती अब कोई माँ
वीर सिंह से युद्ध वांकरे, पीठ दिखा कर भाग लिए
वर्षा आयी बिन जीवन रस , संस्कारों की राख लिए
मन मोहन रस लीला रंग में, खुद ही इतने मस्त हुए
पूतना पी गयी सागर सारा, ऐसे वो आश्वस्त हुए
छाई हुयी कालिमा इतनी कैसे यह मिट पाएगी
उषा किरण अब ग्यारह की क्या कुछ भी कर पाएगी
नए वर्ष में हम सब जुटकर ऐसा इक सकल्प करें
स्वच्छ कर सकें धूमिल छवि, ऐसा एक विकल्प धरें
श्रीप्रकाश शुक्ल
कुंठित पड़ी चेतना अब तक, शब्द नहीं सज पाते हैं
विगत बर्ष के अंतिम दिन, नहीं भुलाए जाते हैं
शब्द रतन और राजा जैसे , खो बैठे अपनी गरिमा
उपनामों की संज्ञा में, नहीं चाहती अब कोई माँ
वीर सिंह से युद्ध वांकरे, पीठ दिखा कर भाग लिए
वर्षा आयी बिन जीवन रस , संस्कारों की राख लिए
मन मोहन रस लीला रंग में, खुद ही इतने मस्त हुए
पूतना पी गयी सागर सारा, ऐसे वो आश्वस्त हुए
छाई हुयी कालिमा इतनी कैसे यह मिट पाएगी
उषा किरण अब ग्यारह की क्या कुछ भी कर पाएगी
नए वर्ष में हम सब जुटकर ऐसा इक सकल्प करें
स्वच्छ कर सकें धूमिल छवि, ऐसा एक विकल्प धरें
श्रीप्रकाश शुक्ल
एक मूर्ति माटी की
कच्ची माटी से बनी,
अनेकों आकार लेती है वो,
बेटी, बहिन, माँ और
पत्नी रूप में निश्वार्थ,
सर्वश्व देती है वो,
पर जब
अन्यायों की झुलस,
आत्मग्लानि की आग
उसे तपाती है
तो वो पक जाती है
फिर आकारों में न ढलके
या तो टूट जाती है
या फिर फौलादी खंजर बन,
समाज के दरिंदों के समक्ष
आ खड़ी होती है
निर्भीक, चंडी सम, सहज ही उतारकर,
वो सुकोमल,सौम्य,
शालीनता का परिधान.
और हम देखते हैं नारी का
एक और रूप,विकृत रूप
जो स्वभावतः नहीं होता.
कौन उत्तरदायी है इस रूप का,
हम केवल हम
काश हम समझ पाते
और रोक पाते इस
अनावश्यक बदलाव को .
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
कच्ची माटी से बनी,
अनेकों आकार लेती है वो,
बेटी, बहिन, माँ और
पत्नी रूप में निश्वार्थ,
सर्वश्व देती है वो,
पर जब
अन्यायों की झुलस,
आत्मग्लानि की आग
उसे तपाती है
तो वो पक जाती है
फिर आकारों में न ढलके
या तो टूट जाती है
या फिर फौलादी खंजर बन,
समाज के दरिंदों के समक्ष
आ खड़ी होती है
निर्भीक, चंडी सम, सहज ही उतारकर,
वो सुकोमल,सौम्य,
शालीनता का परिधान.
और हम देखते हैं नारी का
एक और रूप,विकृत रूप
जो स्वभावतः नहीं होता.
कौन उत्तरदायी है इस रूप का,
हम केवल हम
काश हम समझ पाते
और रोक पाते इस
अनावश्यक बदलाव को .
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
Monday, 15 November 2010
तम से लड़ता रहा, दीप जलता रहा
एक नन्हा सा दिया,
बस मन में बैठा ठान हठ
अंधियार मैं रहने न दूं
मैं ही अकेला लूं निपट
मन में सुदृढ़ संकल्प ले,
जलने लगा वो अनवरत
संत्रास के झोकों ने घेरा
जान दुर्वल, लघु, विनत
दूसरा आकर जुड़ा,
देख उसको थका हारा
धन्य समझूं, मैं स्वयं को,
दे सकूं मैं, जो सहारा
इस तरह जुड़ते गए,
और श्रृंखला बनती गयी
निष्काम,परहित काम आयें
भावना पलती गयी
एक होता यदि अकेला,
अभितप्त होकर टूट जाता
मिल बनें, अविजेय दल
सघन तम भी मात खाता
पंक्ति का प्रत्येक मानिक,
नए युग की नयी शक्ति
निश्वार्थ सेवा में समर्पित
मन संजोये, त्याग, भक्ति
तम से लड़ता रहा, दीप जलता रहा
इक दूसरे को सहारा दिए
ज्योतिमय हो जगत और फैले खुशी
शुभकामनाएं, ह्रदय में लिए
एक नन्हा सा दिया,
बस मन में बैठा ठान हठ
अंधियार मैं रहने न दूं
मैं ही अकेला लूं निपट
मन में सुदृढ़ संकल्प ले,
जलने लगा वो अनवरत
संत्रास के झोकों ने घेरा
जान दुर्वल, लघु, विनत
दूसरा आकर जुड़ा,
देख उसको थका हारा
धन्य समझूं, मैं स्वयं को,
दे सकूं मैं, जो सहारा
इस तरह जुड़ते गए,
और श्रृंखला बनती गयी
निष्काम,परहित काम आयें
भावना पलती गयी
एक होता यदि अकेला,
अभितप्त होकर टूट जाता
मिल बनें, अविजेय दल
सघन तम भी मात खाता
पंक्ति का प्रत्येक मानिक,
नए युग की नयी शक्ति
निश्वार्थ सेवा में समर्पित
मन संजोये, त्याग, भक्ति
तम से लड़ता रहा, दीप जलता रहा
इक दूसरे को सहारा दिए
ज्योतिमय हो जगत और फैले खुशी
शुभकामनाएं, ह्रदय में लिए
Friday, 29 October 2010
दीपावली
दीपावलि की धवल पंक्तियाँ, देती आयीं सदा संदेशा
छाया मिटे क्लेश कुंठा की, जीवन सुखमय रहे हमेशा
छोटा बड़ा नहीं कोई भी, बीज साम्य के दीपक बोते
इसी लिए हर घर के दीपक, केवल मिटटी के ही होते
चाह यही यह दिव्य रश्मियाँ, हर मन को आलोड़ित करदें
ये प्रकाश की मनहर किरणें, जीवन अंगना आलोकित कर दें
रहे कामना यही ह्रदय में, मंगलमय हो हर जीवन
प्रेम और सद्भाव बढायें, मिलकर सभी धनिक निर्धन
देश प्रेम की प्रवल भावना, भरी रहे सबके मन में
उर्जा और शक्ति विकसित हो, हर तरुणाई के तन में
पुण्य पर्व की ज्योति शिखाएं, अशुभ सोच संशोधित कर दें
ये प्रकाश की मनहर किरणें, जीवन अंगना आलोकित कर दें
श्रीप्रकाश शुक्ल
दीपावलि की धवल पंक्तियाँ, देती आयीं सदा संदेशा
छाया मिटे क्लेश कुंठा की, जीवन सुखमय रहे हमेशा
छोटा बड़ा नहीं कोई भी, बीज साम्य के दीपक बोते
इसी लिए हर घर के दीपक, केवल मिटटी के ही होते
चाह यही यह दिव्य रश्मियाँ, हर मन को आलोड़ित करदें
ये प्रकाश की मनहर किरणें, जीवन अंगना आलोकित कर दें
रहे कामना यही ह्रदय में, मंगलमय हो हर जीवन
प्रेम और सद्भाव बढायें, मिलकर सभी धनिक निर्धन
देश प्रेम की प्रवल भावना, भरी रहे सबके मन में
उर्जा और शक्ति विकसित हो, हर तरुणाई के तन में
पुण्य पर्व की ज्योति शिखाएं, अशुभ सोच संशोधित कर दें
ये प्रकाश की मनहर किरणें, जीवन अंगना आलोकित कर दें
श्रीप्रकाश शुक्ल
शरद पूर्णिमा विभा
सम्पूर्ण कलाओं से परिपूरित,
आज कलानिधि दिखे गगन में
शीतल, शुभ्र ज्योत्स्ना फ़ैली,
अम्बर और अवनि आँगन में
शक्ति, शांति का सुधा कलश,
उलट दिया प्यासी धरती पर
मदहोश हुए जन जन के मन,
उल्लसित हुआ हर कण जगती पर
जब आ टकरायीं शुभ्र रश्मियाँ,
अद्भुत, दिव्य ताज मुख ऊपर
देदीप्यमान हो उठी मुखाभा,
जैसे, तरुणी प्रथम मिलन पर
कितना सुखमय क्षण था यह,
जब औषधेश सामीप्य निकटतम
दुःख और व्याधि स्वतः विच्छेदित,
कर अनन्य आशिष अनुपम
श्रीप्रकाश शुक्ल
सम्पूर्ण कलाओं से परिपूरित,
आज कलानिधि दिखे गगन में
शीतल, शुभ्र ज्योत्स्ना फ़ैली,
अम्बर और अवनि आँगन में
शक्ति, शांति का सुधा कलश,
उलट दिया प्यासी धरती पर
मदहोश हुए जन जन के मन,
उल्लसित हुआ हर कण जगती पर
जब आ टकरायीं शुभ्र रश्मियाँ,
अद्भुत, दिव्य ताज मुख ऊपर
देदीप्यमान हो उठी मुखाभा,
जैसे, तरुणी प्रथम मिलन पर
कितना सुखमय क्षण था यह,
जब औषधेश सामीप्य निकटतम
दुःख और व्याधि स्वतः विच्छेदित,
कर अनन्य आशिष अनुपम
श्रीप्रकाश शुक्ल
हर दिवस यहाँ हो विजय पर्व
हर मन में पैठी यही कामना ,
प्रति दिवस यहाँ हो विजय पर्व
आये खुशहाली,तिमिर छटे,
हर कृतित्व पर करें गर्व
सम्पूर्ण विश्व ही मित्र बने ,
देशों के परस्पर द्वेष मिटें
सद्भाव पूर्ण सोचें समझें ,
आपस में मिल अंतर निपटें
दंभ , दर्प, अभिमान भरे हैं
जो मानव के अंतर्मन में
क्रोध, क्रूरता, दया हीनता,
पनप रही हैं जो जन जन में
ये आसुरीय अभिरुचियाँ ,
उखाड़ फेंकें हम जड़ से
धू धू कर जल उठे बुराई,
पायें विजय अहम् अर्पण से
होंसले हमारे हों बुलंद,
विश्वास अडिग, अपनी क्षमता पर
हर दिवस यहाँ हो विजय पर्व,
जब जीत पा सकें हम कटुता पर
हर मन में पैठी यही कामना ,
प्रति दिवस यहाँ हो विजय पर्व
आये खुशहाली,तिमिर छटे,
हर कृतित्व पर करें गर्व
सम्पूर्ण विश्व ही मित्र बने ,
देशों के परस्पर द्वेष मिटें
सद्भाव पूर्ण सोचें समझें ,
आपस में मिल अंतर निपटें
दंभ , दर्प, अभिमान भरे हैं
जो मानव के अंतर्मन में
क्रोध, क्रूरता, दया हीनता,
पनप रही हैं जो जन जन में
ये आसुरीय अभिरुचियाँ ,
उखाड़ फेंकें हम जड़ से
धू धू कर जल उठे बुराई,
पायें विजय अहम् अर्पण से
होंसले हमारे हों बुलंद,
विश्वास अडिग, अपनी क्षमता पर
हर दिवस यहाँ हो विजय पर्व,
जब जीत पा सकें हम कटुता पर
Saturday, 23 October 2010
यह रचना एक सत्य घटना पर आधारित है जो कि हिंदी दिवस के दिन याद आ जाती है .
साक्षात्कार
ऍम एस सी मैथ्स के
प्रविष्टि हेतु चयन होने थे,
गुप्ता जी दाखिल हुए
सामान्य कद, चेहरा भोला
साथ, पुस्तकों से भरा
खद्दर का झोला
प्रश्न पूछे जाते
गुप्ता जी उत्सुकता से
उचकते फिर बैठ जाते,
गुप्ता जी उत्तर जानते थे
अकुलाते,
भाषा की दुरुहता से,
बता नहीं पाते थे
संयम का बाँध
अकस्मात् टूट पड़ा
शब्दों में मुखरित यों
फूट पड़ा
" कछु सबाल हिन्दिउ में
पुछ्हो के अंग्रेजी ई झाड़त रेहयो”
विभागाध्यक्ष समझ गए
गुप्ता जी क्यों उलझ गए
तुरंत प्रश्न किया
एक त्रिभुज के तीन शीर्षों के
निर्देशांक हैं
शून्य शून्य, एक चार , छः चार
क्षेत्रफल बताईये
गुप्ता जी ने क्षणिक किया विचार
दोहराया एक बार
शून्य शून्य, एक चार , छः चार
बोल पड़े
आधार गुणें लम्ब बटे दो,
इतना सा ही प्रश्न बस
क्षेत्रफल हुआ, दस
और भी प्रश्न हुए अनेक
कठिन एक से एक
सभी उत्तर ज्ञान से भरे थे
सही सटीक खरे थे
चलते चलते मैं पूछ बैठा
पुस्तकें साथ लाने का
प्रयोजन क्या, .
उत्तर मिला
"इतना भी नहीं जानते हम क्या ?
आप सबाल पूछें
हम उत्तर दें
आप न मानें तो
पन्ना खोल के दिखायदें"
हम सब चकित थे
देखते रहे विस्मय से
समझ गए समय से
गुप्ता जी पूर्ण थे ज्ञान से
आत्म विश्वास से .
साक्षात्कार
ऍम एस सी मैथ्स के
प्रविष्टि हेतु चयन होने थे,
गुप्ता जी दाखिल हुए
सामान्य कद, चेहरा भोला
साथ, पुस्तकों से भरा
खद्दर का झोला
प्रश्न पूछे जाते
गुप्ता जी उत्सुकता से
उचकते फिर बैठ जाते,
गुप्ता जी उत्तर जानते थे
अकुलाते,
भाषा की दुरुहता से,
बता नहीं पाते थे
संयम का बाँध
अकस्मात् टूट पड़ा
शब्दों में मुखरित यों
फूट पड़ा
" कछु सबाल हिन्दिउ में
पुछ्हो के अंग्रेजी ई झाड़त रेहयो”
विभागाध्यक्ष समझ गए
गुप्ता जी क्यों उलझ गए
तुरंत प्रश्न किया
एक त्रिभुज के तीन शीर्षों के
निर्देशांक हैं
शून्य शून्य, एक चार , छः चार
क्षेत्रफल बताईये
गुप्ता जी ने क्षणिक किया विचार
दोहराया एक बार
शून्य शून्य, एक चार , छः चार
बोल पड़े
आधार गुणें लम्ब बटे दो,
इतना सा ही प्रश्न बस
क्षेत्रफल हुआ, दस
और भी प्रश्न हुए अनेक
कठिन एक से एक
सभी उत्तर ज्ञान से भरे थे
सही सटीक खरे थे
चलते चलते मैं पूछ बैठा
पुस्तकें साथ लाने का
प्रयोजन क्या, .
उत्तर मिला
"इतना भी नहीं जानते हम क्या ?
आप सबाल पूछें
हम उत्तर दें
आप न मानें तो
पन्ना खोल के दिखायदें"
हम सब चकित थे
देखते रहे विस्मय से
समझ गए समय से
गुप्ता जी पूर्ण थे ज्ञान से
आत्म विश्वास से .
गाँधी के देश में
ईश की असीम कृपा, हमको जो जन्म दिया,
सारे जगत को छोड़, गाँधी के देश में,
स्वयं से मिलन का कितना सुगम पथ,
मिलते यहाँ वो, दीन दुखियों के वेश में,
गाँधी का देश, एक ऐसा अनूठा देश,
जीवन के मूल्य जहाँ पाते हम जन्म जात
औरों के दुःख- दर्द, हमको रुलाते यहाँ,
औरों की खुशिया बनें, अपनी सुखद सौगात
सत्य का समर्थन यहाँ, मन में स्फूर्ति भरे,
सत्य की राह यहाँ, जीवन पथ प्रशस्त करे
सत्य का ही आग्रह यहाँ, हमारी समूची शक्ति,
हिंसा को तिलांजलि पूर्ण, सद्भाव आश्वस्त करे
अपराध ही रहा त्याज्य, हर समय हमारे यहाँ,
अपराधी को भ्रमित मान, हम क्षम्य माने सदा
व्यक्ति जो दिखाई दिया, पंक्ति अंत में खड़ा,
चिंता का विषय, सबका, वही रहा सर्वदा
गाँधी के दर्शन से प्रकाशित हो, ज्योति जो ,
जलती रही बेहिचक, उलटी हवाओं में
मानवता का पाठ अब सिखाएगी जगत को वो,
सद्भाव की सुरभि भर, सभी दिक दिशाओं में
ईश की असीम कृपा, हमको जो जन्म दिया,
सारे जगत को छोड़, गाँधी के देश में,
स्वयं से मिलन का कितना सुगम पथ,
मिलते यहाँ वो, दीन दुखियों के वेश में,
गाँधी का देश, एक ऐसा अनूठा देश,
जीवन के मूल्य जहाँ पाते हम जन्म जात
औरों के दुःख- दर्द, हमको रुलाते यहाँ,
औरों की खुशिया बनें, अपनी सुखद सौगात
सत्य का समर्थन यहाँ, मन में स्फूर्ति भरे,
सत्य की राह यहाँ, जीवन पथ प्रशस्त करे
सत्य का ही आग्रह यहाँ, हमारी समूची शक्ति,
हिंसा को तिलांजलि पूर्ण, सद्भाव आश्वस्त करे
अपराध ही रहा त्याज्य, हर समय हमारे यहाँ,
अपराधी को भ्रमित मान, हम क्षम्य माने सदा
व्यक्ति जो दिखाई दिया, पंक्ति अंत में खड़ा,
चिंता का विषय, सबका, वही रहा सर्वदा
गाँधी के दर्शन से प्रकाशित हो, ज्योति जो ,
जलती रही बेहिचक, उलटी हवाओं में
मानवता का पाठ अब सिखाएगी जगत को वो,
सद्भाव की सुरभि भर, सभी दिक दिशाओं में
Thursday, 30 September 2010
साईं आशीषों की हुयी वरसात
मन मयूर नाच उठे
सब से यह बात सुनी
बिटिया है बहुत गुणी
आज हुए तीन बर्ष
आशीष दें हम सहर्ष
सुखी रहे ,फूले फले
काम करे, भले भले
ढेर से प्यार सहित
दादा,दादी, बुआ
महकी राहुल अमीशा की क्यारी
अंकुरित हुयी एक कली प्यारी
बड़ी हुयी फूल बनीबातों की बहुत धनी
सुमति की बातें करे
नाना जी का मन हरे
दादा दादी झूम उठेसुमति की बातें करे
नाना जी का मन हरे
मन मयूर नाच उठे
सब से यह बात सुनी
बिटिया है बहुत गुणी
आज हुए तीन बर्ष
आशीष दें हम सहर्ष
सुखी रहे ,फूले फले
काम करे, भले भले
ढेर से प्यार सहित
दादा,दादी, बुआ
Wednesday, 29 September 2010
समय का फेर
युग युग से मिलता बोध यही
काल चक्र है, काल जयी
इसके निर्देशों पर नाचे
ऋषि, मुनि, दैत्य, देव सब ही
समय चक्र चल रहा अनवरत
प्रकृति और मानव गतिविधि में
सुख दुःख आते जाते क्रमवत
बदले जैसे मौसम हर ऋतु में
समझ समय का फेर इन्हें
जो सामंजस्य बिठा पाता
समभाव युक्त, मुक्त चिंता
से, जीवन सुखद बिता पाता
सब से सुलभ यही पथ है
कर्ता न कभी खुद को मानो
नैसर्गिक है जो भी घटता
प्रकृति रच रही है सब, जानो
युग युग से मिलता बोध यही
काल चक्र है, काल जयी
इसके निर्देशों पर नाचे
ऋषि, मुनि, दैत्य, देव सब ही
समय चक्र चल रहा अनवरत
प्रकृति और मानव गतिविधि में
सुख दुःख आते जाते क्रमवत
बदले जैसे मौसम हर ऋतु में
समझ समय का फेर इन्हें
जो सामंजस्य बिठा पाता
समभाव युक्त, मुक्त चिंता
से, जीवन सुखद बिता पाता
सब से सुलभ यही पथ है
कर्ता न कभी खुद को मानो
नैसर्गिक है जो भी घटता
प्रकृति रच रही है सब, जानो
Tuesday, 14 September 2010
झुककर ही हम आगे बढ़ते
कंटकाकीर्ण, जीवन का पथ
उत्तरदायित्वों से लथपथ
आगे बढ़ने की सतत होड़
अवरोधन अगणित अतोड़
थक जाते जलन, द्रोह लड़ते
झुककर ही हमआगे बढ़ते
टकराना कोई निदान नहीं
मंत्रणा व्यर्थ, जब ज्ञान नहीं
झूटी स्तुति सम्मान नहीं
अहम् ओढ़ना, शान नहीं
मृदुभाषी सब का मन हरते
झुक कर ही हम आगे बढ़ते
झुक कर धन्वा, लक्ष्य साधता
झुक मृग शावक, नदी लांघता
झुक कर खनिक, ढूंढता मोती
विजय प्रेम की बल पर होती
झुक झुक कर ही चोटी चढ़ते
झुक कर ही हम आगे बढ़ते
जग का मालिक, महा सबल
संचालित जिस से हर पल
कृपा प्रभु की जो जो पाता
धैर्य नम्रता से सज जाता
झुककर विनय प्रभू की करते
झुककर ही हम आगे बढ़ते
श्रीप्रकाश शुक्ल
फार्मिंगटन हिल्स (यू एस ए )
१२ सितम्बर २०१०
कंटकाकीर्ण, जीवन का पथ
उत्तरदायित्वों से लथपथ
आगे बढ़ने की सतत होड़
अवरोधन अगणित अतोड़
थक जाते जलन, द्रोह लड़ते
झुककर ही हमआगे बढ़ते
टकराना कोई निदान नहीं
मंत्रणा व्यर्थ, जब ज्ञान नहीं
झूटी स्तुति सम्मान नहीं
अहम् ओढ़ना, शान नहीं
मृदुभाषी सब का मन हरते
झुक कर ही हम आगे बढ़ते
झुक कर धन्वा, लक्ष्य साधता
झुक मृग शावक, नदी लांघता
झुक कर खनिक, ढूंढता मोती
विजय प्रेम की बल पर होती
झुक झुक कर ही चोटी चढ़ते
झुक कर ही हम आगे बढ़ते
जग का मालिक, महा सबल
संचालित जिस से हर पल
कृपा प्रभु की जो जो पाता
धैर्य नम्रता से सज जाता
झुककर विनय प्रभू की करते
झुककर ही हम आगे बढ़ते
श्रीप्रकाश शुक्ल
फार्मिंगटन हिल्स (यू एस ए )
१२ सितम्बर २०१०
Monday, 30 August 2010
अतिकृमण
प्रकृति जननि आँचल में अपने, भर हुए अनगिनत सुसाधन
चर अचर सभी जिन पर आश्रित, करते सुचारू जीवन यापन
बढ़ती आबादी ,अतिशय दोहन, उचित और अनुचित प्रयोग
साधन नित हो रहे संकुचित, दिन प्रतिदिन बढ़ता उपभोग
जर्जर काया, शक्ति हीन, माँ, साथ निभाएगी कब तक
दुख है, भाव, न , जाने क्यों यह, मन में आया अब तक
प्रकृति गोद में अब तक जो, पलते रहे हरित द्रुम दल
यान, वाहनों की फुफकारें, जला रहीं उनको प्रतिपल
असमय उनका निधन देख, तमतमा रहा माँ का चेहरा
ऋतुएं बदलीं, हिमगिरि पिघले, दैवी प्रकोप, आकर ठहरा
प्राकृत संरक्षण है अपरिहार्य, मानव जीवन सार्थक जब तक
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक
हम सचेत, उद्यमी, क्रियात्मक, आत्मसात सारा विश्लेषण
भूमण्डलीय ताप बढ़ने के कारण, मानव जन्य उपकरण
सामूहिक सद्भाव सहित, खोजेंगे हल उतम प्रगाड़
गतिविधियाँ वर्जित होंगी, परिमण्डल रखतीं जो बिगाड़
निश्चित उद्देश्य न पूरे हों , कटिबद्ध रहेंगे हम तब तक
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक
श्रीप्रकाश शुक्ल
नवगीत
जाने क्यों यह मन में आया अभी अभी तत्पर
क्या होता नवगीत, विधा क्या, क्या कुछ शोध हुयी इस पर
कौन जनक, उपजा किस युग में, कौन दे रहा इसको संबल
प्रश्न अनेकों मन में उपजे, सोया, जाग्रत हुआ मनोबल
कैसे यह परिभाषित, क्या क्या जुडी हुयी इस से आशाएं
हिंदी भाषा होगी समृद्ध , क्या विचक्षणों की ये तृष्णाएँ
शंका रहित प्रश्न यह लगते, सुनकर केवल मधुर नाम
पर नामों का औचित्य तभी , जब सुखद, मनोरम हो परिणाम
हिंदी साहित्य सदन में क्या ये, होंगे सुदीप्त दीपक बनकर
जिनकी आभा से आलोकित, सिहर उठे मानव अन्तः स्वर
कैसे टूटा मानस मन, पायेगा अभीष्ट साहस, शक्ति
बिना भाव संपूरित जब, होगी केवल रूखी अभिव्यक्ति
छोड़ रहा हूँ खुले प्रश्न ये, आज प्रबुद्धों के आगे
नवगीतों की रचना में, वांछित क्यों अनजाने धागे
श्रीप्रकाश शुक्ल
२८ अगस्त २०१०
कुछ हटकर
जाने क्यों यह मन में आया,
हम हैं, जिम्मेदार स्वयं,
अपने दुःख, अपनी आपत के.
खोज रहे हैं परम शांति,
हो बसीभूत,
भौतिक अनुरति के.
जो सुख आधारित हो,
अविवेक जनित
आह्लादों पर.
कैसे विजयी हो सकता है ,
विकृत, विशद विषादों पर.
यदि चाहो परम शांति तो,
कुछ हटकर करना होगा.
परहित ,परसेवा में ,
कुछ डटकर करना होगा.
श्रीप्रकाश शुक्ल
३० अगस्त २०१०
प्रकृति जननि आँचल में अपने, भर हुए अनगिनत सुसाधन
चर अचर सभी जिन पर आश्रित, करते सुचारू जीवन यापन
बढ़ती आबादी ,अतिशय दोहन, उचित और अनुचित प्रयोग
साधन नित हो रहे संकुचित, दिन प्रतिदिन बढ़ता उपभोग
जर्जर काया, शक्ति हीन, माँ, साथ निभाएगी कब तक
दुख है, भाव, न , जाने क्यों यह, मन में आया अब तक
प्रकृति गोद में अब तक जो, पलते रहे हरित द्रुम दल
यान, वाहनों की फुफकारें, जला रहीं उनको प्रतिपल
असमय उनका निधन देख, तमतमा रहा माँ का चेहरा
ऋतुएं बदलीं, हिमगिरि पिघले, दैवी प्रकोप, आकर ठहरा
प्राकृत संरक्षण है अपरिहार्य, मानव जीवन सार्थक जब तक
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक
हम सचेत, उद्यमी, क्रियात्मक, आत्मसात सारा विश्लेषण
भूमण्डलीय ताप बढ़ने के कारण, मानव जन्य उपकरण
सामूहिक सद्भाव सहित, खोजेंगे हल उतम प्रगाड़
गतिविधियाँ वर्जित होंगी, परिमण्डल रखतीं जो बिगाड़
निश्चित उद्देश्य न पूरे हों , कटिबद्ध रहेंगे हम तब तक
दुख है, भाव, न, जाने क्यों यह, मन में आया अब तक
श्रीप्रकाश शुक्ल
नवगीत
जाने क्यों यह मन में आया अभी अभी तत्पर
क्या होता नवगीत, विधा क्या, क्या कुछ शोध हुयी इस पर
कौन जनक, उपजा किस युग में, कौन दे रहा इसको संबल
प्रश्न अनेकों मन में उपजे, सोया, जाग्रत हुआ मनोबल
कैसे यह परिभाषित, क्या क्या जुडी हुयी इस से आशाएं
हिंदी भाषा होगी समृद्ध , क्या विचक्षणों की ये तृष्णाएँ
शंका रहित प्रश्न यह लगते, सुनकर केवल मधुर नाम
पर नामों का औचित्य तभी , जब सुखद, मनोरम हो परिणाम
हिंदी साहित्य सदन में क्या ये, होंगे सुदीप्त दीपक बनकर
जिनकी आभा से आलोकित, सिहर उठे मानव अन्तः स्वर
कैसे टूटा मानस मन, पायेगा अभीष्ट साहस, शक्ति
बिना भाव संपूरित जब, होगी केवल रूखी अभिव्यक्ति
छोड़ रहा हूँ खुले प्रश्न ये, आज प्रबुद्धों के आगे
नवगीतों की रचना में, वांछित क्यों अनजाने धागे
श्रीप्रकाश शुक्ल
२८ अगस्त २०१०
कुछ हटकर
जाने क्यों यह मन में आया,
हम हैं, जिम्मेदार स्वयं,
अपने दुःख, अपनी आपत के.
खोज रहे हैं परम शांति,
हो बसीभूत,
भौतिक अनुरति के.
जो सुख आधारित हो,
अविवेक जनित
आह्लादों पर.
कैसे विजयी हो सकता है ,
विकृत, विशद विषादों पर.
यदि चाहो परम शांति तो,
कुछ हटकर करना होगा.
परहित ,परसेवा में ,
कुछ डटकर करना होगा.
श्रीप्रकाश शुक्ल
३० अगस्त २०१०
Tuesday, 24 August 2010
आजका दिन है राखी का
आजका दिन है राखी का, याद भाई की आयी है
किसी ने हाथ रख सर पर, पीठ जो थप थपाई है
पता भी चल नहीं पाया, कि कब आया गया सावन
न गेरू से रंगे गमले, न गोबर से लिपा आँगन
न झालर द्वार पर लटकी, न घरुये पर सजा सारंग
न पूरा चौक आटे से, न पाटे पर बिछा आसन
राखी जो पत्र में भेजी, अभी तक मिल न पायी है
आजका दिन है राखी का याद भाई की आयी है
किसी ने हाथ रख सर पर, पीठ जो थप थपाई है
न झूले कहीं दिखते, लटकते नीम पीपल पर
न कोई गीत बन गूंजा, किसी बिटिया का नन्हा स्वर
नज़र आता नहीं भाई कोई , राखी बंधाने को
कि धागा बाँध, भाई बहिन का रिश्ता निभाने को
कर्णवती ने हल्दी लगा, भेजी थी चिठ्ठी, जो हुमायूं को
भटक सारे शहर में, आज फिर वो लौट आयी है
आजका दिन है राखी का याद भाई की आयी है
श्रीप्रकाश शुक्ल
२४ अगस्त २०१०
आजका दिन है राखी का, याद भाई की आयी है
किसी ने हाथ रख सर पर, पीठ जो थप थपाई है
पता भी चल नहीं पाया, कि कब आया गया सावन
न गेरू से रंगे गमले, न गोबर से लिपा आँगन
न झालर द्वार पर लटकी, न घरुये पर सजा सारंग
न पूरा चौक आटे से, न पाटे पर बिछा आसन
राखी जो पत्र में भेजी, अभी तक मिल न पायी है
आजका दिन है राखी का याद भाई की आयी है
किसी ने हाथ रख सर पर, पीठ जो थप थपाई है
न झूले कहीं दिखते, लटकते नीम पीपल पर
न कोई गीत बन गूंजा, किसी बिटिया का नन्हा स्वर
नज़र आता नहीं भाई कोई , राखी बंधाने को
कि धागा बाँध, भाई बहिन का रिश्ता निभाने को
कर्णवती ने हल्दी लगा, भेजी थी चिठ्ठी, जो हुमायूं को
भटक सारे शहर में, आज फिर वो लौट आयी है
आजका दिन है राखी का याद भाई की आयी है
श्रीप्रकाश शुक्ल
२४ अगस्त २०१०
Friday, 13 August 2010
मन में दृढ विश्वास लिए
राष्ट्र विभाजक अभिरुचियाँ, पनप रहीं हैं दिन प्रति दिन
जाति धर्म पर बट जाने के, परिलक्षित हो रहे शकुन
संकीर्ण विचारों में लथपथ हम, अपनी प्रज्ञा खोये हैं
सौहार्द्र प्रस्फुटित हो न सके, हम ऐसे बीज बोये हैं
हम अभिलाषी, हर भारतीय, जीवन गौरव पूर्ण जिए
सार्थक कदम उठाने होंगे, मन में दृढ विश्वास लिए
हमें भरोसा अपने बल पर, और सहिष्णु मानवता पर
शांति अहिंसा मंतव्यों पर, ज्ञानं कला की क्षमता पर
दिशा जगत को हम देंगे, बन विशाल, विकसित अजेय
समता और बंधुत्व बनेगा, सारे जग का एक ध्येय
आसुरी प्रबृत्तियों के विरुद्ध, जन जन जागृत, संगठित किये
निज देश सृजन हित होंगे तत्पर, मन में दृढ विश्वास लिए
श्रीप्रकाश शुक्ल
मिसिगन ( यू एस ए)
१३ अगस्त २०१०
राष्ट्र विभाजक अभिरुचियाँ, पनप रहीं हैं दिन प्रति दिन
जाति धर्म पर बट जाने के, परिलक्षित हो रहे शकुन
संकीर्ण विचारों में लथपथ हम, अपनी प्रज्ञा खोये हैं
सौहार्द्र प्रस्फुटित हो न सके, हम ऐसे बीज बोये हैं
हम अभिलाषी, हर भारतीय, जीवन गौरव पूर्ण जिए
सार्थक कदम उठाने होंगे, मन में दृढ विश्वास लिए
हमें भरोसा अपने बल पर, और सहिष्णु मानवता पर
शांति अहिंसा मंतव्यों पर, ज्ञानं कला की क्षमता पर
दिशा जगत को हम देंगे, बन विशाल, विकसित अजेय
समता और बंधुत्व बनेगा, सारे जग का एक ध्येय
आसुरी प्रबृत्तियों के विरुद्ध, जन जन जागृत, संगठित किये
निज देश सृजन हित होंगे तत्पर, मन में दृढ विश्वास लिए
श्रीप्रकाश शुक्ल
मिसिगन ( यू एस ए)
१३ अगस्त २०१०
Sunday, 1 August 2010
प्रतिभाओं की कमी नहीं
विश्व भाल, चन्दन बिंदी सम, शोभित अपना सुन्दर देश
धर्म,वर्ण, वर्गीय विविधिता ,पाती जिसमें सम समावेश
विज्ञान,कला, साहित्य दक्षता, मिली हमें पैत्रिक धन में
प्रतिभाओं की कमी नहीं, किलक रही हर घर आंगन में
जन्मजात या फिर श्रम से, प्रतिभा चाहे समुचित निखार
गौरव,मान,स्तुति मिलकर, भरते कुशाग्रता, बल अपार
पांडित्य प्रखर भारत भू का, प्रतिभाओं की कमी नहीं
संतप्त हुआ जब भी समाज, बौछार ज्ञान की थमी नहीं
जब भी कहीं विश्व भर में, कष्टों के बादल छाते हैं
भारत के भावुक सरल हृदय, संवेदन से भर जाते है
प्रतिभापूर्ण प्रखर दिनकर, देदीप्य रश्मियाँ फैलाते हैं
निष्काम भाव से, निज हित तज, हम सदमार्ग दिखाते हैं
यह धरती जननी उस मेधा की,जिसमें निहित देश हित हो
जन कल्याण भावना प्रेरित,युग निर्माण बीज मिश्रित हो
वसुधैव कुटुम्बकम से बढ़कर , उक्ति कोई भी जमीं नहीं
जग हिताय सब कुछ अर्पण,यहाँ प्रतिभाओं की कमी नहीं
श्रीप्रकाश शुक्ल
२८ जुलाई २०१०
बोस्टन
विश्व भाल, चन्दन बिंदी सम, शोभित अपना सुन्दर देश
धर्म,वर्ण, वर्गीय विविधिता ,पाती जिसमें सम समावेश
विज्ञान,कला, साहित्य दक्षता, मिली हमें पैत्रिक धन में
प्रतिभाओं की कमी नहीं, किलक रही हर घर आंगन में
जन्मजात या फिर श्रम से, प्रतिभा चाहे समुचित निखार
गौरव,मान,स्तुति मिलकर, भरते कुशाग्रता, बल अपार
पांडित्य प्रखर भारत भू का, प्रतिभाओं की कमी नहीं
संतप्त हुआ जब भी समाज, बौछार ज्ञान की थमी नहीं
जब भी कहीं विश्व भर में, कष्टों के बादल छाते हैं
भारत के भावुक सरल हृदय, संवेदन से भर जाते है
प्रतिभापूर्ण प्रखर दिनकर, देदीप्य रश्मियाँ फैलाते हैं
निष्काम भाव से, निज हित तज, हम सदमार्ग दिखाते हैं
यह धरती जननी उस मेधा की,जिसमें निहित देश हित हो
जन कल्याण भावना प्रेरित,युग निर्माण बीज मिश्रित हो
वसुधैव कुटुम्बकम से बढ़कर , उक्ति कोई भी जमीं नहीं
जग हिताय सब कुछ अर्पण,यहाँ प्रतिभाओं की कमी नहीं
श्रीप्रकाश शुक्ल
२८ जुलाई २०१०
बोस्टन
Wednesday, 21 July 2010
मान्यवर, एक रचनाकार को किन किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए क्या क्या सुनना पड़ता है और क्या मनोदशा होती है यहाँ चित्रण करने का प्रयास I कृपया प्रतिक्रिया अवश्य दें
सृजन यज्ञ
हे कवि हे सृजनकार,
जो मूल्य संजोये शिष्टि में
उनको कर परिलक्षित तूं ,
अपनी करुनामय दृष्टि में
दुर्भाव, धृष्टता भरे समीक्षण
अनगिन अवरोधन लायेंगे
मित्रों के ईर्षा भरे अनुसरण,
दर्दीला बिष फैलायेंगे
नीलकंठ बन यह सब तुमको,
शांत भाव पी लेना है
आलोचक के प्रत्योत्तर में,
होंठों को सी लेना है
यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर
कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़
श्रीप्रकाश शुक्ल
सृजन यज्ञ
हे कवि हे सृजनकार,
जो मूल्य संजोये शिष्टि में
उनको कर परिलक्षित तूं ,
अपनी करुनामय दृष्टि में
दुर्भाव, धृष्टता भरे समीक्षण
अनगिन अवरोधन लायेंगे
मित्रों के ईर्षा भरे अनुसरण,
दर्दीला बिष फैलायेंगे
नीलकंठ बन यह सब तुमको,
शांत भाव पी लेना है
आलोचक के प्रत्योत्तर में,
होंठों को सी लेना है
यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर
कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़
श्रीप्रकाश शुक्ल
Wednesday, 14 July 2010
सैनिक और कवि
हे सैनिक,जन्म जात तूं,
सार्थक मूल्यों में गढा गया
देश, धर्म संरक्षण को,
दृढ़ता से उनमें जड़ा गया
सम्भव नहीं भुलाना उनको,
आत्मसात हो, पैठे गहरे
नहीं समझ पायेगा तूं,
छुपे मुखौटे ,नकली चहरे
सीमा से हटकर रहने में,
अनगिन अवरोधन आयेंगे
विद्वेष, ईर्षा भरे भाव,
दुर्द्धर बिष फैलायेंगे
नीलकंठ बन यह सब तुमको,
हंस हंस कर पी लेना है
धैर्य असीमित संचित कर,
निज होंठों को सी लेना है
यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर
कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़
श्रीप्रकाश शुक्ल
१४ जून २०१०
हे सैनिक,जन्म जात तूं,
सार्थक मूल्यों में गढा गया
देश, धर्म संरक्षण को,
दृढ़ता से उनमें जड़ा गया
सम्भव नहीं भुलाना उनको,
आत्मसात हो, पैठे गहरे
नहीं समझ पायेगा तूं,
छुपे मुखौटे ,नकली चहरे
सीमा से हटकर रहने में,
अनगिन अवरोधन आयेंगे
विद्वेष, ईर्षा भरे भाव,
दुर्द्धर बिष फैलायेंगे
नीलकंठ बन यह सब तुमको,
हंस हंस कर पी लेना है
धैर्य असीमित संचित कर,
निज होंठों को सी लेना है
यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर
कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़
श्रीप्रकाश शुक्ल
१४ जून २०१०
आप के साथ हैं हम
जब पराये देश,
घर से दूर,
किसी शाम
मन होता है उदास
और कोई अपना नहीं होता आस पास
कुरेदने लगता है शीतल समीर
दिल हो जाता है और भी अधीर
उमड़ते, घुमड़ते मेघों की टोली
आ बैठती है आँखों की कोरों पर
और सहसा झरने लगती है अश्रु धार
तब लगता है कि कोई अपना
याद कर रहा है,
शब्दों के पार हैं भाव , भावों के पार है आत्मन
आत्मन की पहुँच है अनंत
तभी तो आप सभी के साथ हैं हम चिरंतन और अनंतर
जब पराये देश,
घर से दूर,
किसी शाम
मन होता है उदास
और कोई अपना नहीं होता आस पास
कुरेदने लगता है शीतल समीर
दिल हो जाता है और भी अधीर
उमड़ते, घुमड़ते मेघों की टोली
आ बैठती है आँखों की कोरों पर
और सहसा झरने लगती है अश्रु धार
तब लगता है कि कोई अपना
याद कर रहा है,
शब्दों के पार हैं भाव , भावों के पार है आत्मन
आत्मन की पहुँच है अनंत
तभी तो आप सभी के साथ हैं हम चिरंतन और अनंतर
बात बस इतनी सी थी
मैं चकित, हैरान हूँ, इस अंध मोहासक्ति से
सौंदर्य के प्रति तुम्हारी, दुर्विजित आसक्ति से
यह देह तो नश्वर, अचिर, हर व्यक्ति का परिधान है
इसमें रमाना मन, ह्रदय को, सर्वथा अज्ञान है
यदि लगाते लगन इतनी, ईश से, जगदीश से
भ्रान्ति, भय मिटते ह्रदय के, दिव्य शक्ति आशीष से
बात बस इतनी सी थी, पर ह्रदय में घर कर गयी
शूल सी चुभती हुयी, विक्षोभ मन में भर गयी
छोड़कर घर द्वार सारा ,मार्ग पकड़ा भक्ति का
प्रभु राम की गाथा गढ़ी, कौशल चरम अभिव्यक्ति का
और भी कृतियाँ रची, आनंद स्रोत जो बनी
भावपूरित,रस समाहित, नव, विमल निर्झर घनी
सर्वथा अभिभूत जन मन, राम भक्त शिरोमणि
शत शत नमन है हुलसिनन्दन, सुकवि कुल चूड़ामणि
श्रीप्रकाश शुक्ल
१२ जुलाई २०१०
शिकागो
बात बस इतनी सी थी
आपको खाना बनाना आता है क्या?
नहीं, और आपको ?
मुझे ? मैं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी
बहू कहाँ जा रही हो ?
कब तक आओगी ?
अरे तुमने माँ को बताया क्यों नहीं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी
अरे घर तो ठीक नहीं है
हर जगह कबाड़ फैला है
तो करते क्यों नहीं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी
श्रीप्रकाश शुक्ल
१२ जुलाई २०१०
शिकागो
मैं चकित, हैरान हूँ, इस अंध मोहासक्ति से
सौंदर्य के प्रति तुम्हारी, दुर्विजित आसक्ति से
यह देह तो नश्वर, अचिर, हर व्यक्ति का परिधान है
इसमें रमाना मन, ह्रदय को, सर्वथा अज्ञान है
यदि लगाते लगन इतनी, ईश से, जगदीश से
भ्रान्ति, भय मिटते ह्रदय के, दिव्य शक्ति आशीष से
बात बस इतनी सी थी, पर ह्रदय में घर कर गयी
शूल सी चुभती हुयी, विक्षोभ मन में भर गयी
छोड़कर घर द्वार सारा ,मार्ग पकड़ा भक्ति का
प्रभु राम की गाथा गढ़ी, कौशल चरम अभिव्यक्ति का
और भी कृतियाँ रची, आनंद स्रोत जो बनी
भावपूरित,रस समाहित, नव, विमल निर्झर घनी
सर्वथा अभिभूत जन मन, राम भक्त शिरोमणि
शत शत नमन है हुलसिनन्दन, सुकवि कुल चूड़ामणि
श्रीप्रकाश शुक्ल
१२ जुलाई २०१०
शिकागो
बात बस इतनी सी थी
आपको खाना बनाना आता है क्या?
नहीं, और आपको ?
मुझे ? मैं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी
बहू कहाँ जा रही हो ?
कब तक आओगी ?
अरे तुमने माँ को बताया क्यों नहीं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी
अरे घर तो ठीक नहीं है
हर जगह कबाड़ फैला है
तो करते क्यों नहीं ?
बात बस इतनी सी थी
रास्ते बदलने की आपसी सहमति थी
श्रीप्रकाश शुक्ल
१२ जुलाई २०१०
शिकागो
Sunday, 27 June 2010
अधिकांशतः ऐसी रचनाएं पढ़ीं जहाँ यह बताया गया कि सास, ससुर और बेटा मिलकर बहू को दुखी करते हैं लेकिन समय बदल गया है और अब ऐसा कुछ भी नहीं है यह सब हालात भर निर्भर करता है कि कौन कब और कैसे कितना उत्तरदायित्व निभाता है आईये देखते हैं अमेरिका में :-
अमरीका के सास, बहू
बहुरिया के हिमायतीन लिख धरयो बहुत कछु,
बहुरिया जस हमेश पीड़ित प्रताड़ित रहिन
सास और ससुर दोनों ने जुलुम ढायो
ननद फूंके आग, बिटवा कछु न कहिन
अस हालात अब तक तो चालत रहिन
पर अब गंगा उल्टी न बहन, सीधी बहत है
पति दुखियारे की कोऊ सुनाई नहिन
बहुरिया नचावे नाच पीड़ित पति नचत है
थोड़ो सो ध्यान इस ओर लेन चहूँ
बचवा जब रोवत आज, बाप को बुलात है
बाप तुरत डायपर बदल, नहलाय धुलाय,
कापड पहिनाय कांधे सुलात है
बहुरिया सारे सारे दिन वेब सर्फ़ करत
जीमेल चैट पर सबसे बतियात है
सांझ होत बिटवा जैसे ही घर मां घुसत
शौपिंग की लिस्ट थाम दोडो चलो जात है
सोवन के पहिल डिशवाशर मां बर्तन भरत
फिर सब जने जब सोवन चले जात हैं
अपनों लैपटॉप लै दफ्तर को काम करे
कैसे हूँ नौकरी बचे, ईश्वर से मनात है
यह तो बात हुयी बिटवा की
सास हू डरी डरी कछु कहत सकुचात है
बचवा के रोवन की जैसे ही आहट सुनत
चादर फेंक तुरत ही दौड़ी चली जात है
ससुर जी की नीद कबहूं न पूरी होत
सारी सारी रात जाग गीता पढ़त कट जात है
सोचत ससुर अब समय ऐसो आय गयो
जो कछु मरद कियो सूद समेत सब चुकात है
श्रीप्रकाश शुक्ल
११ दिसम्बर २००९
दिल्ली
Saturday, 26 June 2010
लगभग सभी प्रशासनिक अधिकारियों को कुछ छोटे छोटे पर्क मिलते हैं जिनसे उनकी कार्य क्षमता बढ़ सके
अधिकारी गण उनका कैसे उपयोग करते है एक द्रष्टिकोण :-
चोरी
एक अवकास प्राप्त सरकारी अधिकारी
रविवार के दिन फुर्सत से,
कबाडी को बुला, अखवार की
रद्दी बेच रहे थे
कबाडी से झिक झिक कर रहे थे
उसकी तोलने की विधि पर,
उसकी तराजू की सत्यता पर,
लपक क़र गए
घर के अन्दर से
कमानीदार तुला ले आये
तबतक उनका एक मित्र
आपहुंचा
बोले ,मैं इसे लन्दन से लाया था
इन कबाडियों को सबक सिखाने के लिए.
मित्र बोला, मेरी समझ से तो
यह सरकारी पैसे से खरीदे गए थे
तुम्हें या तो इन्हें दान क़र देना चाहिए
या फिर बेचकर,
सरकार को पैसे बापिस कर देना चाहिए
देख नहीं रहे कबाड़ी के
पेंट और कमीज़ पर लगे
थिंगडे
ज़रा भी रहम नहीं आता
आपको इसकी दयनीय दशा पर
यह अखवार बेचकर पैसे रख लेना
सरासर चोरी है
अधिकारी जी निरुत्तर थे
और कहीं और देख रहे थे
श्रीप्रकाश शुक्ल
२५ अक्टूबर १९९२
दिल्ली
अधिकारी गण उनका कैसे उपयोग करते है एक द्रष्टिकोण :-
चोरी
एक अवकास प्राप्त सरकारी अधिकारी
रविवार के दिन फुर्सत से,
कबाडी को बुला, अखवार की
रद्दी बेच रहे थे
कबाडी से झिक झिक कर रहे थे
उसकी तोलने की विधि पर,
उसकी तराजू की सत्यता पर,
लपक क़र गए
घर के अन्दर से
कमानीदार तुला ले आये
तबतक उनका एक मित्र
आपहुंचा
बोले ,मैं इसे लन्दन से लाया था
इन कबाडियों को सबक सिखाने के लिए.
मित्र बोला, मेरी समझ से तो
यह सरकारी पैसे से खरीदे गए थे
तुम्हें या तो इन्हें दान क़र देना चाहिए
या फिर बेचकर,
सरकार को पैसे बापिस कर देना चाहिए
देख नहीं रहे कबाड़ी के
पेंट और कमीज़ पर लगे
थिंगडे
ज़रा भी रहम नहीं आता
आपको इसकी दयनीय दशा पर
यह अखवार बेचकर पैसे रख लेना
सरासर चोरी है
अधिकारी जी निरुत्तर थे
और कहीं और देख रहे थे
श्रीप्रकाश शुक्ल
२५ अक्टूबर १९९२
दिल्ली
२८ साल पहिले अपने एक मित्र निर्मल कुमार दुआ से बातचीत करते समय परिहास में, मैंने दहेज़ का समर्थन कर दिया .मित्र बहुत संवेदनशील और दृढ़ विचारों के थे प्रत्योत्तर ऐसा था कि कभी न भूल सका और न भूल ही पाऊंगा .क्या था सुनिए इस छोटी सी रचना में जो मुझे अतिशय प्रिय है :-
भिखारी
एक सरकारी अधिकारी
अपने मित्र से बात कर रहे थे
बोले मैं तो अपने बेटे की
शादी में दहेज़ जरूर लूँगा
मित्र ने कहा दहेज़ लेना
भीख मांगने के बराबर है
बोले क्यों न लूं ?
मैंने लड़के को
पदाया लिखाया,
इतना खर्च जो किया है
फिर अपनी दो बेटिओं की शादी में
खूब दहेज़ भी दिया है
मित्र ने कहा, बंधु
भीख तो तुम अब भी
मांग रहे हो
फर्क इतना है
कि अब अपने कोढ़
दिखाकर मांग रहे हो
कोढ़ दिखाकर मांग रहे हो
श्रीप्रकाश शुक्ल
२५ अक्टूबर १९८२
हैदराबाद
भिखारी
एक सरकारी अधिकारी
अपने मित्र से बात कर रहे थे
बोले मैं तो अपने बेटे की
शादी में दहेज़ जरूर लूँगा
मित्र ने कहा दहेज़ लेना
भीख मांगने के बराबर है
बोले क्यों न लूं ?
मैंने लड़के को
पदाया लिखाया,
इतना खर्च जो किया है
फिर अपनी दो बेटिओं की शादी में
खूब दहेज़ भी दिया है
मित्र ने कहा, बंधु
भीख तो तुम अब भी
मांग रहे हो
फर्क इतना है
कि अब अपने कोढ़
दिखाकर मांग रहे हो
कोढ़ दिखाकर मांग रहे हो
श्रीप्रकाश शुक्ल
२५ अक्टूबर १९८२
हैदराबाद
स्वयं की अनुभव की हुयी एक घटना जिसने जिन्दगी को नए तरीके से देखने के लिए मजबूर कर दिया.
फौजी जीवन में यह पता ही नहीं चला कि साधारण मनुष्य कैसे जीवन यापन कर रहा है वो भी केवल
नियति की मार से : पढ़िए
ब्रास की नेम प्लेट
कर्नल साहिब की ब्रास की नेम प्लेट,
घर के दरबाजे से चोरी हो गयी
कर्नल झल्लाए, बोखलाए गुस्से से,
मानो उनकी सारी संपत्ति ही खो गयी
सब गार्डस को बुला,खरी खोटी सुना,
कड़े शब्दों में आदेश दिया, जाओ
कैसे भी हो, कहीं भी हो
मेरी नेम प्लेट ढूँढ कर लाओ
एक गार्ड बोला मुझे संदेह है
उस कूडा उठाने बाले पर,
कूड़ा उठा जो साथ ले जाता है
पास मैं ही स्थिति कूडेदान में कूड़ा दाल
रोज दोपहर घर चला जाता है
कर्नल गार्ड को ले जा पहुंचे कूड़े दान के पास,
देखा दो नवयुवक कुछ कर रहे थे
कूडेदान से ब्रेड और सब्जी के टुकड़े निकाल,
प्लास्टिक की थैलियों में भर रहे थे
यह युवक थे राजीव झुग्गी झोपडी के
यमुना किनारे से विस्थापित हो आये थे
घर के सभी सदस्य, खुद भी बेरोजगार थे
कूडेदान में फिके भोजन को ही जीवन साध्य बनाये थे
आत्म ग्लानि से ह्रदय विदारित,
कर्नल फूट फूट कर रोये
दुनिया के हालात न समझे
रहे सदा ही जागृत सोये
श्रीप्रकाश शुक्ल
२२ अक्टूबर २००९
दिल्ली
फौजी जीवन में यह पता ही नहीं चला कि साधारण मनुष्य कैसे जीवन यापन कर रहा है वो भी केवल
नियति की मार से : पढ़िए
ब्रास की नेम प्लेट
कर्नल साहिब की ब्रास की नेम प्लेट,
घर के दरबाजे से चोरी हो गयी
कर्नल झल्लाए, बोखलाए गुस्से से,
मानो उनकी सारी संपत्ति ही खो गयी
सब गार्डस को बुला,खरी खोटी सुना,
कड़े शब्दों में आदेश दिया, जाओ
कैसे भी हो, कहीं भी हो
मेरी नेम प्लेट ढूँढ कर लाओ
एक गार्ड बोला मुझे संदेह है
उस कूडा उठाने बाले पर,
कूड़ा उठा जो साथ ले जाता है
पास मैं ही स्थिति कूडेदान में कूड़ा दाल
रोज दोपहर घर चला जाता है
कर्नल गार्ड को ले जा पहुंचे कूड़े दान के पास,
देखा दो नवयुवक कुछ कर रहे थे
कूडेदान से ब्रेड और सब्जी के टुकड़े निकाल,
प्लास्टिक की थैलियों में भर रहे थे
यह युवक थे राजीव झुग्गी झोपडी के
यमुना किनारे से विस्थापित हो आये थे
घर के सभी सदस्य, खुद भी बेरोजगार थे
कूडेदान में फिके भोजन को ही जीवन साध्य बनाये थे
आत्म ग्लानि से ह्रदय विदारित,
कर्नल फूट फूट कर रोये
दुनिया के हालात न समझे
रहे सदा ही जागृत सोये
श्रीप्रकाश शुक्ल
२२ अक्टूबर २००९
दिल्ली
दिल्ली की एक सड़क पर धटित एक परिदृश्य ने ह्रदय को
झकझोर कर रख दिया और सोचकर कि ऐसी घटनाओं का
निर्मूल निदान संभवतः कभी भी न मिल सकेमन अति उद्द्वेलित
रहा . क्या था यह दृश्य आईये देखिये यहाँ :-
एक बचपन
सर्दी के दिन
मध्य रात्रि,
गाडी चलते चलते
डग मगाई,
फिर
चूँ चूँ कर रुक गई
देखा, पहिया फ्लेट था
सामने की झोपडी से
एक बचपन
ठुरता हुआ ,
दौड कर
आया, बोला
साहिब बदल दूं
बदल,जल्दी कर
गाडी के नीचे घुसा,
जैक लगाया और
नंगे पैर स्पैनर
पर कूद कूद कर
नट खोलने लगा
नट खुल रहा था
पैर कट रहा था
पहिया बदल,
दायाँ हाथ फैला
खडा हो गया
जैसे भीख मांग रहा हो
या फिर
जैसे साहिब की
इंसानियत आँक रहा हो
साहिब जी ने
पांच का सिक्का
उसके हाथ पर पट्कते हुए कहा
ले, भाग जा
लडखडाती आवाज़ में
धीरे से बोला
साहिब जी कम हैं,
साहिब अनसुनी कर
गाडी में बैठे
चले गए
तेज रफ्तार
धुंध में खोगई
आँखों से ओझल हो गयी
बचपन
सोचता रहा
इंसानियत यहाँ भी
मर चुकी है
कहाँ होगी ?
आँख का पानी
यहाँ भी सूख चूका है
कहाँ होगा ?
फिर मुट्ठी में सिक्का दबाये
अपनी खोली लौट गया
ख्याल आया
यह बचपन
कोई भी हो सकता था
श्रीप्रकाश शुक्ल
5 जनवरी २०१०
दिल्ली
नए बर्ष की प्रतीक्षा के दिन, सभी यह चाहते हैं कि नया बर्ष सब के लिए सुखदाई और मंगलकारी हो, बीते हुए बर्ष की अपेक्षा कहीं अधिक, लेकिन यह सब कैसे हो, इसी विचार को मनन करते हुए इस रचना ने जन्म लिया . ३१ दिसंबर २००९ को लिखी रचना प्रस्तुत है :-
कैसे बदलें नए बर्ष के ग्रह?
कुछ ही क्षणों में
नव बर्ष आयेगा
खट खटायेगा
हमारा द्वार,
आशाएं हैं बहुत
कामनाएं हैं बहुत
कैसे होंगीं पूर्ण
करना होगा
सार्थक विचार,
लेने होंगे संकल्प
जो
स्वार्थ से परे हों,
सद्भाव से भरे हों,
उद्देश्य पर खरे हों,
और
सोचने होंगे विकल्प
जो सहारा दें
उन्हें जो
हैं असहाय
जूझ रहे हैं,
जीवन की समस्याओं से
छोड़ चुके हैं सब उम्मीदें
और हैं निरास.
बधाना होगा उन्हें ढाढस,
जगाना होगा उनके आत्म विश्वास को
बदलनी होगी उनकी सोच को,
तभी बदलसकेंगे नए
बर्ष के ग्रहों को,
आओ संकल्प लें
ऐसा ही करने का
नए साल को
सुख शांति से भरने का.
श्रीप्रकाश शुक्ल
३१ दिसम्बर २००९
दिल्ली
कैसे बदलें नए बर्ष के ग्रह?
कुछ ही क्षणों में
नव बर्ष आयेगा
खट खटायेगा
हमारा द्वार,
आशाएं हैं बहुत
कामनाएं हैं बहुत
कैसे होंगीं पूर्ण
करना होगा
सार्थक विचार,
लेने होंगे संकल्प
जो
स्वार्थ से परे हों,
सद्भाव से भरे हों,
उद्देश्य पर खरे हों,
और
सोचने होंगे विकल्प
जो सहारा दें
उन्हें जो
हैं असहाय
जूझ रहे हैं,
जीवन की समस्याओं से
छोड़ चुके हैं सब उम्मीदें
और हैं निरास.
बधाना होगा उन्हें ढाढस,
जगाना होगा उनके आत्म विश्वास को
बदलनी होगी उनकी सोच को,
तभी बदलसकेंगे नए
बर्ष के ग्रहों को,
आओ संकल्प लें
ऐसा ही करने का
नए साल को
सुख शांति से भरने का.
श्रीप्रकाश शुक्ल
३१ दिसम्बर २००९
दिल्ली
Friday, 25 June 2010
छः दिसम्बर १९९२ को अयोध्या में कुछ अराजक तत्वों ने वहाँ स्थिति बाबरी मस्जिद गिरा दी .तब से अब तक दिसंबर के प्रथम सप्ताह में उस दुखद घटना की याद दिलाने के लिए कुछ न कुछ उत्तेजक हर बर्ष लिखा जाता है
ऐसा ही इस बर्ष भी हुआ जो अच्छा नहीं लग रहा था सहसा कुछ विचार आये और मैंने उनको " याचना "नाम से एक छोटी सी रचना में पिरोहा .पढ़िए
याचना
मणि शब्द पिरोहो ऐसे, गाँठ न पड़ने पाए
रंग रंजित हों ऐसे, कालिख न लगने पाए
हर नज़्म बने कुछ ऐसी,पत्थर दिल पिघलाए
रस प्लावित हर गीत बने, प्रेमांकुर उपजाए
कहने को तो कुछ भी, कैसे भी कह सकते हैं
पर बात बिगडती हो जब, चुप भी रह सकते हैं
क्या पायेगा कोई जो बात पुरानी खोलोगे
कडवे ही रिश्ते होंगे जो नमक घाव पर छोड़ोगे
हमें जरूरत है हम सब, अपनी सोच बदल दें
मन बचन कर्म हों ऐसे,मानवता को बल दें
जो हुआ था पागलपन में,हम सब उसे भुलादें
आपस में सदभाव बढे, बस ऐसी ज्योति जला दें
श्रीप्रकाश
४ दिसम्बर २००९
दिल्ली
ऐसा ही इस बर्ष भी हुआ जो अच्छा नहीं लग रहा था सहसा कुछ विचार आये और मैंने उनको " याचना "नाम से एक छोटी सी रचना में पिरोहा .पढ़िए
याचना
मणि शब्द पिरोहो ऐसे, गाँठ न पड़ने पाए
रंग रंजित हों ऐसे, कालिख न लगने पाए
हर नज़्म बने कुछ ऐसी,पत्थर दिल पिघलाए
रस प्लावित हर गीत बने, प्रेमांकुर उपजाए
कहने को तो कुछ भी, कैसे भी कह सकते हैं
पर बात बिगडती हो जब, चुप भी रह सकते हैं
क्या पायेगा कोई जो बात पुरानी खोलोगे
कडवे ही रिश्ते होंगे जो नमक घाव पर छोड़ोगे
हमें जरूरत है हम सब, अपनी सोच बदल दें
मन बचन कर्म हों ऐसे,मानवता को बल दें
जो हुआ था पागलपन में,हम सब उसे भुलादें
आपस में सदभाव बढे, बस ऐसी ज्योति जला दें
श्रीप्रकाश
४ दिसम्बर २००९
दिल्ली
जून माह के उत्तरार्ध में दिए जाने के लिए, समस्या पूर्ती का वाक्याँश था " आंख का पानी ". यह वाक्याँश इतना प्रयोग हुआ है जिसकी गिनती नहीं की जा सकती .इसको अनेको अर्थों में भी प्रयोग किया गया है अतः ऐसा कठिन हो रहा था कि इस वाक्याँश के साथ कैसे नई रचना की जाये . फिर जो कुछ भी ह्रदय में आया लिख दिया .हो सकता है कि कुछ प्रबुद्ध जन कथ्य से पूर्ण रूप से सहमत न हों : रचना है
आँख का पानी
आगयी आज सहसा सुधियों में,
अपनी भू की जीवन्त कहानी
हर युग में भड़के प्रलय ज्वाल,
जब जब मरा आँख का पानी
यद्यपि होता अशोभनीय,
पर पुरुषों से प्रणय निवेदन
पर क्या मर्यादा संगत है
अवला नारी का अंग विच्छेदन
माया नगरी था द्रुपद महल
कौतुक, श्रमिक, कर्मकारों का
अंधों के अंधे ही होते
क्या अर्थ था इन उद्गारों का
धर्मराज थे सत्य मूर्ति,
कर न सके क्यों,सत्य कथन
पांडु पौत्र इतिहास बदलते,
असमय होते जो न हनन
यही श्रृंखला आज चल रही,
चोर लुटेरे, प्रासादों में
सीधे सच्चे, निर्धन, विपन्न,
घिरे हुए अवसादों में
सत्ता के नायक मूक, बधिर
या सूख रहा आँखों का पानी
नहीं समझते दुहराएगी
कल फिर, वो दुःख भरी कहानी
श्रीप्रकाश शुक्ल
२१ जून २०१०
आँख का पानी
आगयी आज सहसा सुधियों में,
अपनी भू की जीवन्त कहानी
हर युग में भड़के प्रलय ज्वाल,
जब जब मरा आँख का पानी
यद्यपि होता अशोभनीय,
पर पुरुषों से प्रणय निवेदन
पर क्या मर्यादा संगत है
अवला नारी का अंग विच्छेदन
माया नगरी था द्रुपद महल
कौतुक, श्रमिक, कर्मकारों का
अंधों के अंधे ही होते
क्या अर्थ था इन उद्गारों का
धर्मराज थे सत्य मूर्ति,
कर न सके क्यों,सत्य कथन
पांडु पौत्र इतिहास बदलते,
असमय होते जो न हनन
यही श्रृंखला आज चल रही,
चोर लुटेरे, प्रासादों में
सीधे सच्चे, निर्धन, विपन्न,
घिरे हुए अवसादों में
सत्ता के नायक मूक, बधिर
या सूख रहा आँखों का पानी
नहीं समझते दुहराएगी
कल फिर, वो दुःख भरी कहानी
श्रीप्रकाश शुक्ल
२१ जून २०१०
Thursday, 24 June 2010
दिसंबर का माह वो माह है जिसमें मेरा पुत्र और तीनों बेटियां विदेश जाकर रहने लगीं कभी लगा कि ये ठीक नहीं हुआ फिर कभी, कि जो कुछ भी हुआ ठीक ही होगा . इन्हीं विचारों को इन दो रचनाओं में पिरोने का प्रयास किया है कहाँ तक अपनी अनुभूति व्यक्त कर सका यह आप निर्णय करेंगे :
लौट आओ
देश घिरा है अपवादों से
मूल्य हुए सर्वत्र नष्ट
विपदाओं के बादल छाये
लालच बस नेतृत्व भ्रष्ट
विषम परिस्तिथियाँ घेरे हैं
जब देश बुलाये उनको
मातृभूमि की अचल शक्ति पर
दृढ विश्वास है जिनको
जगहित, जनसेवा में जो
निज हित को बलिदान करें
झंझावात कठिन सह कर भी
मार्ग प्रशस्त प्रदान करें
बूँद बूँद से सागर भरता
कण कण से बनता सागर तट
अणु अणु से ब्रह्माण्ड सृजन
क्षण क्षण रचता काल विकट
देश बुलाता उन पुत्रो को
जो बन रहे आँख के तारे
जिन पर सबका विश्वास अडिग था
जो सबके थे सुदृढ़ सहारे
याद तुम्हारी कभी न बिसरी
तुम्हें याद कर कभी न थकते
लौटो अपने देश बंधुओ
राह तुम्हारी हम सब तकते
श्रीप्रकाश शुक्ल
२३ दिसम्बर २००९
दिल्ली
प्रवासी
मुझे गर्व है उनपर
जो मेरी मिट्टी में
उपजे,पनपे,लिखे पढ़े और बड़े हुए,
अपने पैरों खड़े हुए.
फिर अपनी
बुद्धि, ज्ञान प्रबलता से,
निष्ठा,कार्य कुशलता से,
सदाचार, कर्मठता से,
डट गए
विश्व के हर कोने में,
एक नया उत्साह लिए,
नए सृजन की चाह लिए,
बिन बाधाओं की परवाह किये,
पाये वो लक्ष्य सहज ही में,
जो दुर्लभ और अगम थे
कोई भी हो क्षेत्र, कठिन कितना भी,
कितने भी दुर्गम कार्य,
उनके लिए सुलभ थे
अपने सपने साकार देख
रच रहे नित्य वो कीर्तिमान,
जीवन उनका आदर्श पूर्ण
देश करे उन पर गुमान
पर उन बिछुडों की याद
जब मन में घर कर जाती है
उठती टीस ह्रदय में, हो व्याकुल मन
अश्रु धार वह जाती है
यही कामना जन्मभूमि की,
जहाँ रहो सुख पाओ
सत्य अहिंसा आत्मसात कर
विश्व बंधुत्व निभाओ
श्रीप्रकाश
२५ दिसम्बर २००९
दिल्ली
लौट आओ
देश घिरा है अपवादों से
मूल्य हुए सर्वत्र नष्ट
विपदाओं के बादल छाये
लालच बस नेतृत्व भ्रष्ट
विषम परिस्तिथियाँ घेरे हैं
जब देश बुलाये उनको
मातृभूमि की अचल शक्ति पर
दृढ विश्वास है जिनको
जगहित, जनसेवा में जो
निज हित को बलिदान करें
झंझावात कठिन सह कर भी
मार्ग प्रशस्त प्रदान करें
बूँद बूँद से सागर भरता
कण कण से बनता सागर तट
अणु अणु से ब्रह्माण्ड सृजन
क्षण क्षण रचता काल विकट
देश बुलाता उन पुत्रो को
जो बन रहे आँख के तारे
जिन पर सबका विश्वास अडिग था
जो सबके थे सुदृढ़ सहारे
याद तुम्हारी कभी न बिसरी
तुम्हें याद कर कभी न थकते
लौटो अपने देश बंधुओ
राह तुम्हारी हम सब तकते
श्रीप्रकाश शुक्ल
२३ दिसम्बर २००९
दिल्ली
प्रवासी
मुझे गर्व है उनपर
जो मेरी मिट्टी में
उपजे,पनपे,लिखे पढ़े और बड़े हुए,
अपने पैरों खड़े हुए.
फिर अपनी
बुद्धि, ज्ञान प्रबलता से,
निष्ठा,कार्य कुशलता से,
सदाचार, कर्मठता से,
डट गए
विश्व के हर कोने में,
एक नया उत्साह लिए,
नए सृजन की चाह लिए,
बिन बाधाओं की परवाह किये,
पाये वो लक्ष्य सहज ही में,
जो दुर्लभ और अगम थे
कोई भी हो क्षेत्र, कठिन कितना भी,
कितने भी दुर्गम कार्य,
उनके लिए सुलभ थे
अपने सपने साकार देख
रच रहे नित्य वो कीर्तिमान,
जीवन उनका आदर्श पूर्ण
देश करे उन पर गुमान
पर उन बिछुडों की याद
जब मन में घर कर जाती है
उठती टीस ह्रदय में, हो व्याकुल मन
अश्रु धार वह जाती है
यही कामना जन्मभूमि की,
जहाँ रहो सुख पाओ
सत्य अहिंसा आत्मसात कर
विश्व बंधुत्व निभाओ
श्रीप्रकाश
२५ दिसम्बर २००९
दिल्ली
२० जून को अमेरिका और लन्दन में पितृ दिवस था इस अवसर पर दो छोटी छोटी रचनाएँ लिखीं हैं एक पुत्र के नाम , दूसरी पिता श्री की स्मृति में आईये पढ़िए दोनों ही :-
पुत्र के नाम : पिता दिवस पर
व्यक्ति ही, शत्रु है या मित्र है,
स्वयं का, निज धर्म का
भूलकर भी मत गिराना,
मान अपनी अस्मिता का, कर्म का
कार्य कुछ ऐसे चुनो,
उच्चत्व दें, उद्देश्य को
सम्पूर्ण जग हित में रहें,
गर्वित करें निज देश को
जब कभी द्विविधा उठे,
क्या गलत है क्या सही ?
दो समर्थन, सत्य को ही,
अंत में विजयी वही
अर्थ और पद के प्रलोभन,
मन न ललचायें कभी
हो मनोवल सुदृढ़ इतना
पग न डिग पायें कभी
पथ सफलता का कभी,
कोई सुगम होता नहीं
लक्ष्य पा जाता वही,
जो धैर्य को खोता नहीं
बुद्धिबल विकसित करो,
नित नया संकल्प लेकर
साथ ले सबको चलो,
अहम् की आहूति देकर
मंत्र है एक और जो,
सत्य, पूर्ण, अकाट्य है
हो रहा, जो कुछ जगत में,
वह किसी का नाट्य है
करना न कोई तर्क, उसकी,
सत्यता और शक्ति पर
रखना अटल विश्वास,
उसकी सहृदयता, निज भक्ति पर
श्रीप्रकाश शुक्ल
२० जून २०१०
लन्दन
पिता की स्मृति में : पितृ दिवस पर
पितृ दिवस है आज किसी ने
भेजी स्वस्थ कामनाएं
याद आपकी फिर घिर आयी
जैसे जल भर सुखद घटाएं
बातें जो समझी सीखी थी
सब की सब जीवंत रहीं हैं
दुर्भाग्यपूर्ण, दुसाध्य क्षणों में
संबल बन सामंत रहीं है
कहा आपने था, अच्छा है
श्रेणी पाना अतिशय विशिष्ट
उससे भी आवश्यक है
आचरण रहे निर्मल सुशिष्ट
पाठ दुखों का पढना होगा
यदि, संवेदना संजोना है
आहत हो तन मन, फिर भी
हतोत्साह न होना है
कार्य कठिन हो कितना भी
पर जीवन नहीं लिया करता
जो घुस जाते साहस कर
उनको सम्मान दिया करता
जो करना है अभी करो
इससे उत्कृष्ट उसूल नहीं
जो कार्य स्थगित करते हैं
उससे कोई बढ़कर भूल नहीं
भाव पूर्ण बातें अनेक
जो आप बताया करते थे
मैं सुनी अनसुनी करदूं
पर आप सुनाया करते थे
आज वही सब कुछ संभाल
लिख भेजी है सीख राज की
पीढ़ी दर पीढी अर्पित हो
पाथेय बनें नूतन समाज की
श्रीप्रकाश शुक्ल
२० जून २०१०
लन्दन
--
Web:http://bikhreswar.blogspot.com/
पुत्र के नाम : पिता दिवस पर
व्यक्ति ही, शत्रु है या मित्र है,
स्वयं का, निज धर्म का
भूलकर भी मत गिराना,
मान अपनी अस्मिता का, कर्म का
कार्य कुछ ऐसे चुनो,
उच्चत्व दें, उद्देश्य को
सम्पूर्ण जग हित में रहें,
गर्वित करें निज देश को
जब कभी द्विविधा उठे,
क्या गलत है क्या सही ?
दो समर्थन, सत्य को ही,
अंत में विजयी वही
अर्थ और पद के प्रलोभन,
मन न ललचायें कभी
हो मनोवल सुदृढ़ इतना
पग न डिग पायें कभी
पथ सफलता का कभी,
कोई सुगम होता नहीं
लक्ष्य पा जाता वही,
जो धैर्य को खोता नहीं
बुद्धिबल विकसित करो,
नित नया संकल्प लेकर
साथ ले सबको चलो,
अहम् की आहूति देकर
मंत्र है एक और जो,
सत्य, पूर्ण, अकाट्य है
हो रहा, जो कुछ जगत में,
वह किसी का नाट्य है
करना न कोई तर्क, उसकी,
सत्यता और शक्ति पर
रखना अटल विश्वास,
उसकी सहृदयता, निज भक्ति पर
श्रीप्रकाश शुक्ल
२० जून २०१०
लन्दन
पिता की स्मृति में : पितृ दिवस पर
पितृ दिवस है आज किसी ने
भेजी स्वस्थ कामनाएं
याद आपकी फिर घिर आयी
जैसे जल भर सुखद घटाएं
बातें जो समझी सीखी थी
सब की सब जीवंत रहीं हैं
दुर्भाग्यपूर्ण, दुसाध्य क्षणों में
संबल बन सामंत रहीं है
कहा आपने था, अच्छा है
श्रेणी पाना अतिशय विशिष्ट
उससे भी आवश्यक है
आचरण रहे निर्मल सुशिष्ट
पाठ दुखों का पढना होगा
यदि, संवेदना संजोना है
आहत हो तन मन, फिर भी
हतोत्साह न होना है
कार्य कठिन हो कितना भी
पर जीवन नहीं लिया करता
जो घुस जाते साहस कर
उनको सम्मान दिया करता
जो करना है अभी करो
इससे उत्कृष्ट उसूल नहीं
जो कार्य स्थगित करते हैं
उससे कोई बढ़कर भूल नहीं
भाव पूर्ण बातें अनेक
जो आप बताया करते थे
मैं सुनी अनसुनी करदूं
पर आप सुनाया करते थे
आज वही सब कुछ संभाल
लिख भेजी है सीख राज की
पीढ़ी दर पीढी अर्पित हो
पाथेय बनें नूतन समाज की
श्रीप्रकाश शुक्ल
२० जून २०१०
लन्दन
--
Web:http://bikhreswar.blogspot.com/
Friday, 18 June 2010
इ-कविता की तीसरी समस्या पूर्ती का कार्य, मंच के वरिष्ठ सदस्य श्री एस ऍम चंदावरकर जी को सौपा गया. श्री चंदावरकर जी भावुक ह्रदय के बड़े ही ज्ञानी ध्यानी प्रबुद्ध व्यक्ति हैं उन्होंने वाक्याँश दिया " तेरे रूप की पूनम का पागल, मैं अकेला " पसीने छूट गए उनसे अनुनय विनय की कि श्रीमान जी इस उम्र में कहाँ कल्पना को दौड़ाने की आज्ञा दे रहे हैं पहिले तो बोले की कवि ह्रदय के लिए सब कुछ कभी भी सम्भव है फिर तरस खाकर दूसरा वाक्याँश दिया जो था " मन का इकतारा तुमही तुमही कहता है " मन में आया की दोनों पर ही रचना लिखी जाए .हार क्यों मानी जाय तो पढ़िए दोनों ही रचनाएं :-
तेरे रूप की पूनम का पागल, मैं अकेला
अनेकों रूप हैं तेरे, अनेकों काम हैं तेरे
तुझे दिल से बुलाने के, अनेकों नाम हैं तेरे
जगत का तूं सृजन करता, लगाता नित नया मेला
तेरे रूप की पूनम का हूँ पागल, मैं अकेला
लगाई लौ तुम्ही से है, जगत की सम्पदा तजकर
चाहा था उठाओगे मुझे, तुम हाथ फैलाकर
पर हुयी क्या भूल कुछ ऐसी, मुझे जो गर्त में ठेला
तेरे रूप की पूनम का पागल हूँ, मैं अकेला
तेरा ही नाम लेकर मैं, बिताऊँ हर दिवस हर पल
तेरे ही गीत नित गाऊँ, चढ़ाऊँ, फूल मेवा फल
दया का दान दो भगवन, मिलन की अब यही बेला
तेरे रूप की पूनम का पागल हूँ, मैं अकेला
तू ही आधार जगती का, तू ही आलम्ब है सबका
कृपादृष्टी हुयी जिसपर, हुआ जीवन सफल उसका
तू करुना का सागर है, दयालु और अलबेला
तेरे रूप की पूनम का पागल हूँ, मैं अकेला
श्रीप्रकाश शुक्ल
१३ मई २०१०
लन्दन
मन का इकतारा तुमही तुमही कहता है
कोई अपना है, मन को जो,
सबसे सुन्दर लगता है
जिसकी उर धड़कन को सुनकर,
मेरा भावुक स्वर जगता है
पलकें रोती जिसे याद कर,
संचित धैर्य सिसकता है
मन का इकतारा उसे याद कर,
तुमही तुमही कहता हैs
सुख अपना तुमको देने मैं
एक अनूठा सुख मिलता है
जब छिन जाता वो सुख हमसे,
पल भर भी जीना खलता है
तुम्हें भुलाना सरल नहीं,
यह्सास तेरा प्रतिपल रहता है
मन का इकतारा सदैव,
तुमही तुमही कहता है
तुम आयी थी जीवन में बन,
शीतल,अरुणिम,भानु किरन
तृप्त हुआ था मेरा तन मन,
पाकर प्रेमयुक्त आलिंगन
तेरी एक झलक पाने को,
मन बौराया रहता है
मन का इकतारा प्रतिपल,
तुमही तुमही कहता है
कितनी पीड़ा भरी ह्रदय में,
कितना मधुमय राग सलोना
छुपा ले गयी तुम आँचल में
मेरा चंचल मन मृग छोना
प्यार मिले प्रिय का जी भर जब,
मन प्रमुदित पावन रहता है
मन का इकतारा चातक बन,
तुमही तुमही कहता है
श्रीप्रकाश शुक्ल
१३ मई २०१०
लन्दन
तेरे रूप की पूनम का पागल, मैं अकेला
अनेकों रूप हैं तेरे, अनेकों काम हैं तेरे
तुझे दिल से बुलाने के, अनेकों नाम हैं तेरे
जगत का तूं सृजन करता, लगाता नित नया मेला
तेरे रूप की पूनम का हूँ पागल, मैं अकेला
लगाई लौ तुम्ही से है, जगत की सम्पदा तजकर
चाहा था उठाओगे मुझे, तुम हाथ फैलाकर
पर हुयी क्या भूल कुछ ऐसी, मुझे जो गर्त में ठेला
तेरे रूप की पूनम का पागल हूँ, मैं अकेला
तेरा ही नाम लेकर मैं, बिताऊँ हर दिवस हर पल
तेरे ही गीत नित गाऊँ, चढ़ाऊँ, फूल मेवा फल
दया का दान दो भगवन, मिलन की अब यही बेला
तेरे रूप की पूनम का पागल हूँ, मैं अकेला
तू ही आधार जगती का, तू ही आलम्ब है सबका
कृपादृष्टी हुयी जिसपर, हुआ जीवन सफल उसका
तू करुना का सागर है, दयालु और अलबेला
तेरे रूप की पूनम का पागल हूँ, मैं अकेला
श्रीप्रकाश शुक्ल
१३ मई २०१०
लन्दन
मन का इकतारा तुमही तुमही कहता है
कोई अपना है, मन को जो,
सबसे सुन्दर लगता है
जिसकी उर धड़कन को सुनकर,
मेरा भावुक स्वर जगता है
पलकें रोती जिसे याद कर,
संचित धैर्य सिसकता है
मन का इकतारा उसे याद कर,
तुमही तुमही कहता हैs
सुख अपना तुमको देने मैं
एक अनूठा सुख मिलता है
जब छिन जाता वो सुख हमसे,
पल भर भी जीना खलता है
तुम्हें भुलाना सरल नहीं,
यह्सास तेरा प्रतिपल रहता है
मन का इकतारा सदैव,
तुमही तुमही कहता है
तुम आयी थी जीवन में बन,
शीतल,अरुणिम,भानु किरन
तृप्त हुआ था मेरा तन मन,
पाकर प्रेमयुक्त आलिंगन
तेरी एक झलक पाने को,
मन बौराया रहता है
मन का इकतारा प्रतिपल,
तुमही तुमही कहता है
कितनी पीड़ा भरी ह्रदय में,
कितना मधुमय राग सलोना
छुपा ले गयी तुम आँचल में
मेरा चंचल मन मृग छोना
प्यार मिले प्रिय का जी भर जब,
मन प्रमुदित पावन रहता है
मन का इकतारा चातक बन,
तुमही तुमही कहता है
श्रीप्रकाश शुक्ल
१३ मई २०१०
लन्दन
इ-कविता की दूसरी समस्या पूर्ती का वाक्य था " तन पुलकित, मन प्रमुदित,माँ कि सुधियाँ पुरवाई सी " ये वाक्य श्रीमती डॉ शकुंतला बहादुर ने Mothers' Day के दिन चुना .मां शब्द से जुड़े होने के कारण इस समस्या पूर्ती में ढेर सारी एक से बढ़कर एक रचनाएं आयीं .मैंने भी अपना योग दान दिया माँ को प्रणाम कर जो लिखा वो यह था :-
तन पुलकित, मन प्रमुदित,माँ कि सुधियाँ पुरवाई सी
सुधियाँ माँ की अनगिनत असीमित,
जिनके रंग न धूमिल होते
सुरभित सुमनों के दिव्य स्वप्न बन ,
मन के हर कोने में सोते
जिनकी गंध कभी न उडती,
लगती ना ही, अलसाई सी
तन पुलकित,मन प्रमुदित
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
निष्काम कर्म का पाठ पढ़ाना,
माँ का सदैव ही यह कहना
जीवन में सुख है,दुःख भी है,
हसकर दोनों ही सह लेना
बातें माँ की सरस, मधुर, क्रमबद्ध, अर्थमय,
करती गुंजन शहनाई सी
तन पुलकित, मन प्रमुदित,
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
जीवन में आगे बढ़ने की,
राह बता, नव लक्ष्य दिए
अहम् कर्म कर्त्तव्य निभाना,
पर सेवा के, बचन लिए
याद सारगर्भित बातों की,
लगती प्रतिपल सुखदाई सी
तन पुलकित, मन प्रमुदित,
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
जितने थे तुमने दीप गढ़े,
सब ज्योतिर्कन बिखराते हैं
तम निगल निगल रजनी का,
वे भोर सुहानी लाते हैं
स्नेह भरा इतना असीम,
कि ज्योति जले मन भायी सी
तन पुलकित, मन प्रमुदित,
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
जितनी हैं सागर में लहरें,
अम्बर में जितने तारे हैं
मन ने उतनी बार तेरी,
स्मृति के पाँव पखारे हैं
मधुर याद सोयी सुधियों की,
मन में भरती तरुनाई सी
तन पुलकित,मन प्रमुदित,
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
श्रीप्रकाश शुक्ल
लन्दन
तन पुलकित, मन प्रमुदित,माँ कि सुधियाँ पुरवाई सी
सुधियाँ माँ की अनगिनत असीमित,
जिनके रंग न धूमिल होते
सुरभित सुमनों के दिव्य स्वप्न बन ,
मन के हर कोने में सोते
जिनकी गंध कभी न उडती,
लगती ना ही, अलसाई सी
तन पुलकित,मन प्रमुदित
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
निष्काम कर्म का पाठ पढ़ाना,
माँ का सदैव ही यह कहना
जीवन में सुख है,दुःख भी है,
हसकर दोनों ही सह लेना
बातें माँ की सरस, मधुर, क्रमबद्ध, अर्थमय,
करती गुंजन शहनाई सी
तन पुलकित, मन प्रमुदित,
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
जीवन में आगे बढ़ने की,
राह बता, नव लक्ष्य दिए
अहम् कर्म कर्त्तव्य निभाना,
पर सेवा के, बचन लिए
याद सारगर्भित बातों की,
लगती प्रतिपल सुखदाई सी
तन पुलकित, मन प्रमुदित,
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
जितने थे तुमने दीप गढ़े,
सब ज्योतिर्कन बिखराते हैं
तम निगल निगल रजनी का,
वे भोर सुहानी लाते हैं
स्नेह भरा इतना असीम,
कि ज्योति जले मन भायी सी
तन पुलकित, मन प्रमुदित,
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
जितनी हैं सागर में लहरें,
अम्बर में जितने तारे हैं
मन ने उतनी बार तेरी,
स्मृति के पाँव पखारे हैं
मधुर याद सोयी सुधियों की,
मन में भरती तरुनाई सी
तन पुलकित,मन प्रमुदित,
माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
श्रीप्रकाश शुक्ल
लन्दन
एक रचनाकार को काव्य सृजन में अनेकानेक विषमताओं को झेलना पड़ता है क्या क्या प्रतिक्रियाएं आती है और कहाँ कहाँ से पता ही नहीं रहता . ऐसे हालात में उसे क्या करना चाहिए, ये सब निम्न रचना में देने का प्रयास किय है कहाँ तक सफलता मिली है आप सब निर्णय करेंगे, :-
सृजन यज्ञ
हे कवि हे सृजनकार,
जो मूल्य संजोये शिष्टि में
उनको कर परिलक्षित तूं ,
अपनी करुनामय दृष्टि में
दुर्भाव, धृष्टता भरे समीक्षण
अनगिन अवरोधन लायेंगे
मित्रों के ईर्षा भरे अनुसरण,
दर्दीला बिष फैलायेंगे
नीलकंठ बन यह सब तुमको,
शांत भाव पी लेना है
आलोचक के प्रत्योत्तर में,
होंठों को सी लेना है
यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर
कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़
श्रीप्रकाश शुक्ल
१४ जून २०१०
लन्दन
सृजन यज्ञ
हे कवि हे सृजनकार,
जो मूल्य संजोये शिष्टि में
उनको कर परिलक्षित तूं ,
अपनी करुनामय दृष्टि में
दुर्भाव, धृष्टता भरे समीक्षण
अनगिन अवरोधन लायेंगे
मित्रों के ईर्षा भरे अनुसरण,
दर्दीला बिष फैलायेंगे
नीलकंठ बन यह सब तुमको,
शांत भाव पी लेना है
आलोचक के प्रत्योत्तर में,
होंठों को सी लेना है
यदि मार्ग चुना है रचना का,
तो फिर जी, कृतित्व के बल पर
अपनी प्रतिभा से हो प्रदीप्त,
अपने कौशल को उन्नत कर
कुत्सित, कटु, कटाक्ष ठुकरा,
सुजन-यज्ञ में समिधा जोड़
दुष्टों के गर्हित शब्द भुला,
मत भाग, सृजन मैदान छोड़
श्रीप्रकाश शुक्ल
१४ जून २०१०
लन्दन
Tuesday, 15 June 2010
Sunday, 13 June 2010
एक दिन सरिता विहार डिस्ट्रिक्ट पार्क में बैठा सोच रहा था कि उम्र के हिसाब से जीवन के विभिन्न पहलुओं पर स्वयं के विचार भी कैसे स्वतः ही परिवर्तित हो जाते हैं. कुछ मुक्तक बने जो कि यहाँ रख रहा हूँ :-
बेतार के तार
समय, दूरियाँ धूमिल करती माधुर्यमयी,अनुपम यादें
बीच भंवर में गोते खातीं दर्द भरी, दिल की फरयादें
फिर भी यह प्रामाणिक है, यदि हों सच्चे भाव ह्रदय से
बिना तार के पहुंचा करते तत्क्षण, प्रिय तक सदा समय से
अमिट प्यास
जीवन भर रसरंग पागे, टूट गए जस कच्चे धागे
पान करो तिरछे नैनों का, फिर प्यासे कुछ क्षण आगे
रूप रंग के मधुमय प्याले, कभी न प्यास मिटायें
जितना ही तुम पीते जाओ, उतनी प्यास बढाएं
सौन्दर्य पूजन
जो समक्ष है प्रत्यक्ष है, वो दिखावा है
किसी तूफानी ज्वालामुखी का लावा है
फूट पड़ते ही, विध्वंस कर डालेगा
सो संजोया है अब तक, समूल खालेगा
पूजना है तो निरंकार पूजो
जी भर दुलारो, जी भर के जूझो
वानप्रस्थी
विचक्षणों का सहज मंतव्य,
हर व्यक्ति स्थिति प्रज्ञ हो
वाह्य स्पर्श जनित सुख अनासक्त,
निर्मोही,निर्लिप्त, साधुभाव सर्वज्ञ हो
हानि लाभ ,सुख दुःख, मान अपमान ,
मानव जीवन का नित्य द्वंद है
इनसे विमुक्त हो आत्म संतुष्टि कर
प्रभु स्मरण ही सच्चा आनंद है
श्रीप्रकाश शुक्ल
२१ अक्टूबर २००९
दिल्ली
२१ अक्टूबर २००९
दिल्ली
मुझे एक दिन अचानक ऐसा लगा कि कई बाहरी द्रष्टिकोण से मैं अपने व्यक्तिगत जीवन में उतना सफल नहीं रहा जितना कि हो सकता था संस्कारों बस मेरे कुछ विचार सशक्त रहे जो कि रुचिकर नहीं लगे . देखिये क्या थे ये :
श्रीप्रकाश शुक्ल
०५ मार्च २०१०
दिल्ली
विफलता
मैं स्वयम ही चकित था, अपनी विफलता पर
भौतिक सुसाधन जुटा पाने की, असफलता पर
कोइ बतलाता नहीं,
स्वयं जान पाता नहीं,
समय चक्र चलता रहा,
जीवन काल घटता रहा
एक किसी प्रकरण में, मित्र ने यूं कहा
ढेर सारी भूलें कीं , जिससे तुमने ये सहा
तुम बुद्धि की जगह, दिल से काम लेते हो
हर डूबते हुए को, अकारण थाम लेते हो
सत्य बोल सभा में, बिष घोल देते हो
सफलता के भार को, इंसानियत से तौल देते हो
कठिन काम सर पे ले, आगे बढ़ते हो
जलती हुयी आग में, निर्भय कूद पढ़ते हो
अन्याय असहाय पर, तुमसे सहा जाता नहीं
झूटी प्रशंसा में, एक शब्द कहा जाता नहीं
इस तरह जीवन यापन में, क्या कोई बुद्धिमानी है ?
मैंने कहा बंधु,, ऐसा न करना सरासर बेईमानी है
सरासर बेईमानी है I
श्रीप्रकाश शुक्ल
०५ मार्च २०१०
दिल्ली
२४ अप्रैल २०१० को इ-कविया मंच के सह -संचालक श्री राकेश खंडेलवाल, जो कि एक अच्छे रचनाकार एवं गीतकार हैं,ने एक वाक्य दिया जिसको रचना में समाहित करके काव्य की किसी भी विधा में लिखना था, मुझे अभी तक स्वाम में छंद बद्ध रचना की क्षमता तो दिखी नहीं अतः जो भी विचार आये मुक्त छंद में ही लिख भेजे .सदस्यों को अच्छे लगे और सराहा भी . आइये आप भी देखे कितनी जान है रचना में.
वाक्याँश था :-पीढियां अक्षम हुयी हैं, निधि नहीं जाती संभाले,
पीढियाँ अक्षम हुयी हैं,निधि नहीं जाती संभाले
गुरु, मनीषी, ज्ञान परिपूरित, विचक्षण,
तम मिटा, लाये उजाले
होम कर सर्वस्व अपना,
घोर दुःख के, पयद टाले
जन्म जन्मान्तर संयोजित ,
वह ज्ञान निधि धूमिल पड़ी है
पीढियाँ अक्षम हुयी हैं,
निधि नहीं जाती संभाले
है अपेक्षित तरुण ही,
इस देश के नायक बनेगे
शीश धर संस्कृत सनातन,
कलुष के सायक बनेगे
पर उन्हें जकड़े हुए हैं
पच्छिमी वो व्याल काले
पीढियां अक्षम हुईं हैं,
निधि नहीं जाती संभाले
पर मेरा विश्वास अविचल,
नित नये अंकुर उगें
मूल्य रग रग में समाहित
जो गये, सदियों से पाले
मत कहो तारुण्य है तपहीन, तेजस-क्षीण,
और भूले से कभी भी मत कहो
पीढियाँ अक्षम हुयी हैं
निधि नहीं जाती संभाले
भीष्म लेटे बाण शैया,
ज्ञान की गंगा बहाते
और अगणित पार्थ भू को
छेद, जलनिधि, अवनि लाते
पुरुषार्थ, शक्ति और धृति:
पीढियाँ कर के हवाले
पीढियाँ सक्षम अभी भी,
निधि रखेंगे वो संभाले
श्रीप्रकाश शुक्ल
२४ अप्रैल २०१०
दिल्ली
वाक्याँश था :-पीढियां अक्षम हुयी हैं, निधि नहीं जाती संभाले,
पीढियाँ अक्षम हुयी हैं,निधि नहीं जाती संभाले
गुरु, मनीषी, ज्ञान परिपूरित, विचक्षण,
तम मिटा, लाये उजाले
होम कर सर्वस्व अपना,
घोर दुःख के, पयद टाले
जन्म जन्मान्तर संयोजित ,
वह ज्ञान निधि धूमिल पड़ी है
पीढियाँ अक्षम हुयी हैं,
निधि नहीं जाती संभाले
है अपेक्षित तरुण ही,
इस देश के नायक बनेगे
शीश धर संस्कृत सनातन,
कलुष के सायक बनेगे
पर उन्हें जकड़े हुए हैं
पच्छिमी वो व्याल काले
पीढियां अक्षम हुईं हैं,
निधि नहीं जाती संभाले
पर मेरा विश्वास अविचल,
नित नये अंकुर उगें
मूल्य रग रग में समाहित
जो गये, सदियों से पाले
मत कहो तारुण्य है तपहीन, तेजस-क्षीण,
और भूले से कभी भी मत कहो
पीढियाँ अक्षम हुयी हैं
निधि नहीं जाती संभाले
भीष्म लेटे बाण शैया,
ज्ञान की गंगा बहाते
और अगणित पार्थ भू को
छेद, जलनिधि, अवनि लाते
पुरुषार्थ, शक्ति और धृति:
पीढियाँ कर के हवाले
पीढियाँ सक्षम अभी भी,
निधि रखेंगे वो संभाले
श्रीप्रकाश शुक्ल
२४ अप्रैल २०१०
दिल्ली
Saturday, 12 June 2010
कविता लिखने के पहिले एक विचार आया कि रचनाएँ कैसी होनी चाहिए,किसके के लिए होँ और कौन,, कहाँ उन्हें पढ़े.. अगर सोच समझ कर एक ऐसी मुहिम छेड़ दी जाये जो हमारे पीछे छूटे हुए साथियों को एक प्रकार की प्रेरणा दे, और उनमें मुख्य धारा मे आने कि लिए प्रोत्साहित करे तो लिखना कुछ कारगर होगा . यही सब इस रचना में है :- पढ़िए
अभियान
नहीं चाहता मेरी कृतियाँ,
मधुशाला में गायी जाएँ
नाचें कूदें शब्द नटी बन
सम्पन्नों का जी बहलायें
मुझे नहीं चिंता उनकी,
जो रह्ते हैं प्रागारों में
मेरी कृतियाँ उनको अर्पित,
जो पलते हैं गलियारों में
चाह नहीं हों शब्द अलंकृत,
लोकेट मोती पन्नों के
मैली गुदरी ही ओढ़े हों,
जीवन दान विपन्नों के
सोयी हुयी चेतना जागे,
मन में भरे आत्म सम्मान
अग्नि उठे शीतल जल में,
भिक्षुक में उपजे निज मान
कारुण्य झरे पाषाणों से,
अहम् बने सौंदर्य गान
तम छ्टे, उगे अनुपम आभा,
कौए छेडें मधुर तान
पीडित, शोषित और उपेक्षित,
करें स्व राष्ट्र पर गुमान
यदि ऐसा सम्भव हो पाये
सार्थक हो मेरा अभियान
श्रीप्रकाश शुक्ल
१४ मार्च २०१०
दिल्ली
अभियान
नहीं चाहता मेरी कृतियाँ,
मधुशाला में गायी जाएँ
नाचें कूदें शब्द नटी बन
सम्पन्नों का जी बहलायें
मुझे नहीं चिंता उनकी,
जो रह्ते हैं प्रागारों में
मेरी कृतियाँ उनको अर्पित,
जो पलते हैं गलियारों में
चाह नहीं हों शब्द अलंकृत,
लोकेट मोती पन्नों के
मैली गुदरी ही ओढ़े हों,
जीवन दान विपन्नों के
सोयी हुयी चेतना जागे,
मन में भरे आत्म सम्मान
अग्नि उठे शीतल जल में,
भिक्षुक में उपजे निज मान
कारुण्य झरे पाषाणों से,
अहम् बने सौंदर्य गान
तम छ्टे, उगे अनुपम आभा,
कौए छेडें मधुर तान
पीडित, शोषित और उपेक्षित,
करें स्व राष्ट्र पर गुमान
यदि ऐसा सम्भव हो पाये
सार्थक हो मेरा अभियान
श्रीप्रकाश शुक्ल
१४ मार्च २०१०
दिल्ली
कुछ दिन पहिले लन्दन के ही एक उद्द्यान में घूमते हुए ध्यान में आया कि मेरे कविता लिखने का अभिप्राय क्या है मैं इससे क्या चाहता हूँ ? मैं जिस बातावरण में बैठकर लिख रहा हूँ उसका, और उनका जिनके लिए लिख रहा हूँ कोई ताल मेल है क्या ? क्या मेरी सिसकतीं हुयी सांसे उन तक पहुच सकेंगी ? उत्तर तो अब तक नहीं मिला लेकिन सोच को ही एक रचना का रूप मिल गया I क्या सोच रहा था पढ़िए यहाँ :-
क्या लिखूं? कैसे लिखूं?
लिखना मेरा तभी सार्थक,
अर्थपूर्ण, शाश्वत, चिन्मय,
शब्द हमारे मिटा सकें जब,
कसक,पीर, दुःख उनका
दिशाहीन, निरूद्देश,
चेतना पड़ी अचेतन,
ओढ़ विषमताओं की चादर,
सोया पड़ा भाग्य जिनका
जीवन के झंझावात निठुर,
झकझोर गए जिनका तन मन बल,
और परिस्थितियाँ पाषाणी,
छीन ले गयीं जिनके संबल
सहकर कठिन थपेड़े निष्ठुर,
कुछ छोटे सपने जो बोये
चली नियति की आंधी ऐसी,
जगने से पहिले ही खोये
अब मैं चाहूँ गीत हमारे,
उनमें भरे शांति की आशा
प्रेरक और प्रोत्साहक हों,
फिर से जले बुझी प्रत्याशा
सुशुप्त चेतना हो प्रबुद्ध,
जब गायें गीत प्रभाती के स्वर
स्वस्थ भावनाएं मुखरित हों,
हरसिंगार पुष्प बन झर झर
नहीं शब्द स्वर में रसमयता,
नहीं शब्द भंडार निमज्जित,
कैसे भरूँ अकृतिम भावुकता,
प्राणवान, गरिमामंडित
सरल, सहज परिदृश्य ह्रदय का,
अर्पित उन दुखियारों को
हो शाश्वत आकांक्षाएं पूरित,
उर्जस्वित करें विचारों को
श्रीप्रकाश शुक्ल
लन्दन
१२ मई २०१०
क्या लिखूं? कैसे लिखूं?
लिखना मेरा तभी सार्थक,
अर्थपूर्ण, शाश्वत, चिन्मय,
शब्द हमारे मिटा सकें जब,
कसक,पीर, दुःख उनका
दिशाहीन, निरूद्देश,
चेतना पड़ी अचेतन,
ओढ़ विषमताओं की चादर,
सोया पड़ा भाग्य जिनका
जीवन के झंझावात निठुर,
झकझोर गए जिनका तन मन बल,
और परिस्थितियाँ पाषाणी,
छीन ले गयीं जिनके संबल
सहकर कठिन थपेड़े निष्ठुर,
कुछ छोटे सपने जो बोये
चली नियति की आंधी ऐसी,
जगने से पहिले ही खोये
अब मैं चाहूँ गीत हमारे,
उनमें भरे शांति की आशा
प्रेरक और प्रोत्साहक हों,
फिर से जले बुझी प्रत्याशा
सुशुप्त चेतना हो प्रबुद्ध,
जब गायें गीत प्रभाती के स्वर
स्वस्थ भावनाएं मुखरित हों,
हरसिंगार पुष्प बन झर झर
नहीं शब्द स्वर में रसमयता,
नहीं शब्द भंडार निमज्जित,
कैसे भरूँ अकृतिम भावुकता,
प्राणवान, गरिमामंडित
सरल, सहज परिदृश्य ह्रदय का,
अर्पित उन दुखियारों को
हो शाश्वत आकांक्षाएं पूरित,
उर्जस्वित करें विचारों को
श्रीप्रकाश शुक्ल
लन्दन
१२ मई २०१०
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