Thursday 30 August 2018

आभार

शब्दों को अवगुंठित कर किस तरह आप उपमायें भरते, 
सीधे साधे भाव हृदय के महिमा मंडित हो जाते हैंं ।
उन्हें एक क्षण पढ लेने की अभिलाषा मन मेंं भर कर,
हम काव्यविधा से अनजाने,  शब्दहीन, पीछे आते हैं 

किस तरह करूं आभार प्रकट,  भाव हीन, शब्दों में सामर्थ नहीं, 
जिस तरह आपने कविता के प्रति,अभिरुच को पनपाया है 
ये तो मां शारद की कृपा रही जो बिन प्रयास सहजता से, 
कवि विशिष्ट श्री राका को हम सब ने पढ पाया है। 

सादर 
श्री
उम्र ढलते ही

उम्र ढलते ही मुझे, खुद को समझाना पडा।
जो था समझा आज तक उसमें है लोचा बडा

स्वार्थ मेंं मशगूलता मकसद नहीं इस जिन्दगी का 
जिन्दगी है इक तपस्या, है सतत इक व्रत कडा 

जिन्दगी की दौड मेंं काम अनुचित हो रहे हैं
परिणाम सन्मुख आयेगा, जायेगा जब भर घडा

अब भी समय कुछ शेष है पर उपकार मेंं जीवन बिता 
फिर समय न पायेगा कलि काल द्वारे पर खडा 

व्यर्थ में जाया किये बेमोल पल "श्री" जिन्दगी के 
संवेदना को कर तिरष्कृत, क्यों तू अपनी पर अडा

श्रीप्रकाश शुक्ल

कलमआज उनकी जय बोल 

कंटकाकीर्ण पथ पर चलकर
 अडिग सत्य हित मेंं रहकर
जो छद्म मुखौटे रहे खोल 
कलम, आज उनकी जय बोल

निर्धनता के आंचल मेंं पल
तूंफा से न हुये विकल 
हर सोच रही जिनकी अनमोल
कलम, आज उनकी जय बोल

जो चट्टानों से टकराते हैं 
निर्भीक मना सब कह जाते हैं 
शब्दों को गढते तोल तोल
कलम, आज उनकी जय बोल

जीवन संवेदन की मूर्ति है
सदकर्मो से भरी की्र्ति है
जो नहीं बजाते व्यर्थं ढोल
कलम, आज उनकी जय बोल

सहिष्णुता जिनका आभूषण
पर हित जाता जिनका हर क्षण
रसना रही प्रीति रस घोल
कलम, आज उनकी जय बोल

श्रीप्रकाश शुक्ल
जग के हित रहने मेंं

जग के हित रहने मेंं, जीवन मेंं सुख  का उदभव होता है
आत्म, शान्ति शीतलता पाता, आह्लादित मन होता है

जीवन मेंं ढूंढा करते सुख, धन, परिवार, सौख्य साधन मेंं
पर सच्चा सुख निहित सदा,परहित पुरुषार्थ
 में होता है

प्रकृति हमें बतलाती है पर उपकार श्रेष्ठतम गुण है 
प्रथ्वी नदी बृक्ष का सब कुछ औरों के हित होता है 

मनसा वाचा और कर्मणा, मंगल साधन जग के हित है
सर्वेभवन्तुसुखिनःसे प्रेरित उर, जग मेंं सुयश संजोता है 

केवल अपना स्वार्थ साधना पशु प्रवृत्ति की द्योतक है
जग हित मेंं अर्पित  मानव "श्री" जन जन का प्यारा होता है ।

श्रीप्रकाश शुक्ल




खिली धूप की चादर

कुछ पल लगा छटा कोहरा है खिली धूप की चादर 
पर तुरन्त ही आकर घेरा, आसुरी अंधेरों ने छाकर

जो दावा करते रहे देश के चौकन्ने सेवक होंने का
मलते हाथ दिख रहे हैं, वो अपने को सोता पाकर

मिलकर गला काटने का भी अपना एक तरीका है
दाने डालो, पास बुला लो, छुरा भौंक दो पीछे जाकर

अब तो साफ नजर आता है ऐसे देश नहीं चल सकता
दंड विधायें हों जो रख दें, दुराचारियों को दहलाकर

मात्र एक साधन है अब "श्री", चोरों को सबक सिखाने का
नीलाम करो इज्जत बाजार में, जिल्ल्त से जो रखी जुटाकर 


श्रीप्रकाश शुक्ल

आखों का पानी खोने का 

आखों का पानी खोने का, कारण कोई विशेष नहीं
मन की विकृत मानसिकता है, छूटा कोई देश नहीं 

नीरव निशीथ के अन्धकार में सत्ता को झांसा देकर 
चोरी कर भग जाते हैं, अन्तस में कोई ठेस नहीं 

सेवा का आश्वासन दे जन प्रतिनिधि तो बन जाते हैं 
पर कुमार्ग का पथ अपनाते होता दिल में क्लेश नहीं ।

आज धर्मसंकट दिखता है, सारा विश्व तमस में डूबा 
सत्य अहिंसा के मूल्यों का दिखता अब अवशेष नहीं ।
 
कठिन परिस्थितियां हों जब "श्री" संतुलन बनाना पडता है
 धैर्य, धर्म ही काबिज होते, सक्षम होता आवेश नहीं      

श्रीप्रकाश शुक्ल 
चिर तृप्ति अमरता पूर्ण प्रहर
 
भोगे जिस सत्ताधारी ने चिर तृप्ति अमरता पू्र्ण प्रहर
उसकी नाकामी ने ढाये, भोली जनता पर क्रूर कहर

रक्षा समाज के तन की हो या फिर हो अपने तन की 
यदि साफ सफाई नहीं हुयी तो तन पर जाती है धूल ठहर

तन का तप अति आवश्यक है अच्छी सेहत रखने को
अय्याशी तन को खाती है जैसे खाता है मंंद जहर

जीवन मेंं कठिन परिश्रम ही आगे बढने की सीढी है 
यदि संकल्पित हो जुटे रहे तो आयेगी नव एक लहर 

नैसर्गिक चाह इन्द्रियों की होती है सुख पूर्ण चलन
मेहनत इसमेंं गरिमा भरती "श्री," साथ चले यदि ईश महर

श्रीप्रकाश शुक्ल

तुमने स्वर दे दिया

तुमने स्वर दे दिया आज मैं निसंकोच खुलकर गाता हूं।
जितना ही लोग बहकते सच सुन, उतना ही   हरषाता हूँ ।।

दबी हुयी वाणी को लेकर युग युग तक रहा अपरिचित,
 ये तो विधिना का विधान था, ऐसा ग्रन्थों में पाता हूँ ।

जब समझा नियति नहीं कुछ, मिथ्या एक छलावा है।
 उठा, मगर लोगों ने रोका कह, अहंकार दिखलाता हूँ

बह निकला पानी सिर ऊपर जब, अंतस ने हुंकार भरी,
क्यों कायर बन करूं उठक बैठक, क्योंकर शौर्य लजाता हूँ ।

बस क्या था मार्ग प्रशस्त हुआ "श्री" छट गया तमश धीरे धीरे 
किस तरह आंकलन करती  दुनियां, अब साफ साफ सुन पाता हूँ ।


श्रीप्रकाश शुक्ल
काली सूरत धब्बे वाली

प्यारी सी मां, काली सूरत धब्बे वाली ओढ़ चुनरिया चली कहाँ 
राह जोहते, कब से बैठे, बांंध टक टकी , तेरे सारे भक्त यहाँ 

जब तू आती, खुशियां लाती, चंचल मन  बन एक पखेरू उड़जाता 
अंतस हर्षाता, रूह पा जाती, जग की सब से शीतल मधुर ठहाँ 

 दुष्ट संहारे, भक्त उबारे  कितने ही तू ने निष्काम भाव से 
जो पापों मे फंसा,  दग्ध  हो रोया, पा गया शांति तेरे दमों की छहाँ 

सिंहवाहिनी, शक्तिशालिनी, कष्टहारिणी भव भय भंजनि तू है 
धरती पावन होती,धान्य उगाती,पग रज पड जाये तेरी जहाँ ।

नवरूपों वाली, बहुफल दायी, तन मन धन सुख दायी है तू "श्री " 
भक्त तेरे, निष्कपट भाव से, जहाँ बुलाते, जाती है तू पहुंच वहाँ ।

श्रीप्रकाश शुक्ल 

Wednesday 29 August 2018

मैंने तो बस इतना 

मैने तो बस इतना ही कह तुमको आगाह किया है
ख्याल पूर्णत अव्यवहारिक है जो तूने वरण किया है

तुमने सोचा प्रथ्वी पर इक ऐसी मू्र्ति सजाकर रख दूं
प्रेम सहित जीवन यापन का जिसने संकल्प लिया है 

पर पैदा कर स्वच्छंद छोडना बिल्कुल पर्याप्त नहीं है 
बहुधा कुमार्गगामी  लोगों ने सबका अहित किया है

अगर आप भू तल पर होते तो फिर ठीक.समझ पाते  
किस तरह विविध जिल्लत का जीवन लोगों ने यहां जिया है 

हमने यहाँ सर्वसम्मति से अब निर्णय ये कठिन लिया है 
अपना पथ खोजेंगे खुद "श्री" मान्य नहीं तुमने जो हमें दिया है ।

श्रीप्रकाश शुक्ल
मैंने तो बस इतना 

बैठे हुए क्षीर सागर में, सृष्टि संचालन करते हो
धारणा यही समदृष्टि से सबका पालन करते हो 

पर जो देखे तौर तरीके, तो उल्टा ही पाया है
दुर्जन खाते दूध बतासा, सज्जन मन दुख से भरते हो

जब खुल्लमखुल्ला दिखी हंसाई, मैंने तो बस इतना बोला 
क्यों नहीं ठीक करते विधान, क्या दुष्टों से डरते हो 

उनकी भृकुटि तनी, बात बिगडी, कब मैं चुप रहने वाला था 
नहींं मानता ठकुराई मैं, क्यों बिन बात झकडते हो 

बिल्कुल साफ कहे देता हूं बुद्धिबल जिस पर तुम्हें गर्व है
मैं भी सक्षम "श्री" रच सकता हूं सृष्टि जैसी तुम रचते हो

श्रीप्रकाश शुक्ल






मैं इस मंजिल पर

मैं इस मंजिल पर पहुंचा हूँ क्यूँकि साहिल आप रहे।
परिवार की खातिर आप सदा कर्तव्यों पर डटे रहे ।।

कुछ छोटी सी आकाक्षायें लेकर हम तुम साथ चले थे
पर देख समय की धार तुम्हारे मन मेंं नये विचार बहे

मैंने सोचा जितनी चादर उतने ही पैर बढाना है 
पर तुमने डोर संभाली बढ, स्वेच्छा से कुछ बिना कहे

मुझे याद वो पहला दिन, जब तुम स्कूल गयी थी 
बेटी ने पूछा, माँ है कहांं, मैं चुप था, बस अश्रु बहे 

आज सभी बच्चे कहते हैं, पापा "श्री" माँ अदभूत है 
माँ ने समिधा बन जीवन मेंं परिवार यज्ञ के कष्ट सहे 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
मैं इस मंजिल पर 

मैं इस मंजिल पर 
 पूर्ण तृप्त हूं ।

मां का बुना पहनकर स्वेटर 
लाद पीठ पर ज्ञान का बस्ता
अचार परांठा साथ बांधकर
मीलों चला वो दुर्गम रस्ता
वाह, गुरू जी का क्या कहना
द्रोण सरीखे पूज्यमना
मैं ऐसे वचपन से
पूर्ण तृप्त हूं

काँँलेज मेंं प्रवेश पाकर
छात्रबृत्ति पर निर्भर रहकर
विज्ञान गणित पर जोर लगाकर
मानक सहज नवीन बनाकर
भौतिकी प्रवक्ता बनकर आया
जितना सीखा सभी पढाया
मैं ऐसी सीढी पर चढ़
पूर्ण तृप्त हूँ 

आगे पड़ा देश पर संकट
घर घुस आये चीनी मर्कट
हमने चुनी भारतीय सेना
मीठे थे वो चने चवेना
नापाक पाक से दो दो हाथ
नश्वर जीवन हुआ सनाथ
मैं इन निर्णायक निमिषों से  
पूर्ण तृप्त हूं ।

अब तो उम्र ढल रही है 
नैया ठीक चल रही है 
सन्तति ने निज फर्ज निभाया
जो मैंने चाहा, कर दिखलाया
सन्तोष और संवेदन है अब
आभार और आराधन है अब
मैं इस मंजिल पर जहाँ खड़ा हूँ
सम्पूर्ण तृप्त हूँ ।

श्रीप्रकाश शुक्ल
आज का दिन

लुप्त हुआ दिन जो अतीत मेंं, उस से क्या लेना देना
उसकी सुधि तो बतलाती है, बीता कैसे दिन कैसे रैना
जिस पल पर अधिकार अभी है, जिससे परिवर्तन आ सकता है
वो पल है बस मात्र अभी का, उसे तराशा जा सकता है 

जीवन का उद्देश्य एक है, शान्त और सुखमय जीवन
इसे सुरक्षित कर सकते हैं, यदि हम गढें आज का दिन
भ्रामकता अतीत, आगत की मिथ्या है, निरस्त कर दो 
वर्तमान पल को संभाल कर, साधन और ऊर्जा भर दो

मन स्थिति जो भी इस पल की, पहचानो स्वीकार करो
जो प्रतिरोधक भाव उठ रहे ,उन्हें नकारो उर न धरो
जो कुछ करना है अभी करो, सबसे उत्तम आज का दिन है 
मन मेंं शीघ्र भाव उपजेगा, सब सम्भव कुछ नहीं कठिन है 

होती जाती शाम 

प्रकृति पुरुष दोनोँ का जग में, है निर्धारित आयाम 
उदभव से समय बीतता जाता, होती जाती शाम

पुरुष बुद्धि से युक्त, सोच और सृजन शक्ति का धारक है 
जीवन जिससे मधुमास बने, वो चुन सकता है 
काम 

जहाँ गुलाब की पंखुरियाँ हों, कांटों का होना निश्चित है 
कैसे कांटे बचा सुमन चुन ले कोई, है बुद्धिमता का नाम

कुछ कर्मठी लोग बिन मन्थन, तुरत काम मेंं जुट जाते हैं 
यदि योजना बद्ध बढेंं आगे, तो निश्चित पायेंं वांछित परिणाम

मन स्थिर और शान्त चाहिए तो बस केवल एक राह है 
किसी घाव पर पाहा रख "श्री", टूटे मन को लो थाम



श्रीप्रकाश शुक्ल
वही बीता हुआ पल 

चैन से सोने न देता बस वही बीता हुआ कल 
उलझनें वो ही सुझाता था न कोई जिनका  हल 

जिंदगी थी राह पर, पर उलझनें कुछ पाल लीं 
शूल सी चुभतीं रहीं, पर जिन्हें था छोडना मुश्किल 

आज कितने वर्ष बीते पर न कल ने साथ छोड़ा 
अश्रु जल से सिक्त कर, हर ख़ुशी करता विफल   

औचित्य क्या डूबे हुए हम, आज भी बीते क्षणों में 
क्यों न गुजरे कल को भूलें और करें अगला सफल 

बुद्धि का संबल लिये  विगत को जो भूलता "श्री"  
वो मनीषी स्वयं और सारा जगत करता विमल 

श्रीप्रकाश शुक्ल 
 
 
जब जब नीड़ बनाये हमनेंं

जब जब नीड़ बनाये हमनेंं, पास बसे पंछी 
मुस्काये ।
बोले, मोह जाल मेंं फस क्यों  फिरते हो भरमाये  ।

कोई पखेरू इस युग मेंं, जिसको मिट्टी से प्यार नहीं है ।
नहीं टिकेगा इन नीड़ों मेंं चाहे कोई लाख मनाये।

लुप्त हुये वो दिन अतीत के, मातृभूमि ही जब 
कवि मेंंदीरत्ता  का शुभ आगमन 

खनकाने लग पड़ी दिशाएँ अपनी रतनजड़ित पायलियांं,
बैरानक्रीक  की पावन लहरों से हुये अनेकों मंत्र उच्चरित 
काले पहाड़ के शिखरों से लौटी गूंज यज्ञ शंखो के स्वर ले ,
अभिनंदित हैं सभी, हुुये कवि  मेंंदीरत्ता आज अवतरित
मधु, रेनु हैं परम अनुुग्रहित, पाकर ऐसा उपहार ईश से 
जगदीश उमा आनन्दित हो भरते कवि की झोली अशीष से 
मीरा सोच रही विस्मित हो ,भाई प्यारा पाकर गुड्डे सा
रक्षावन्धन के अवसर पर, लाया कौन खिलौना ऐसा

कनिका की आखों में चमकी हैं ,अनगिन हीरक कनियां
रोहित को दायां हाथ मिला है ,एक अनूठे नए रूप में
यही कामना है हम सब की, रहे पूर्णिमा, घिरी निशा में 
और दिवस जीवन के पथ के रहेंं चमकते खिली धूप में

शुभ कामनाओं सहित 
 गीता -श्रीप्रकाश 
एवं समस्त परिवार

Shriprakash Shukla wgcdrsps@gmail.

सब कुछ थी
अब तो ऐशो आराम की दुनियां हर पंछी का जी ललचाये 

इस भ्रमित मानसिकता का कारण अपनी  शिक्षा पद्धति ही है 
जिसमें विदेश के सुख साधन के हमने बढ़ चढ़ स्वप्न दिखाये 

है नितांत आवश्यक अब, हम समाज मेंं जाग्रति लायेंं
ऐसी प्रारम्भिक शिक्षा  दें, जो देश प्रेम की अलख जगाये।

जिस उपबन मेंं जन्म लिया और जहाँ चुगे 
खाने के दाने
वो शिक्षा जो इस उपबन के संरक्षण की सपथ दिलाये ।

अपना पेट पालने को तो सक्षम है हर अदना सा प्राणी
पर हमें चाहिए ऐसी शिक्षा जो पर हित का पाठ पढ़ाये 

एक बार यदि सफल हुये हम देश भक्ति उपजाने मेंं
तो स्वर्ण महल बन जायेंंगे "श्री" जो भी हमने नीड़ बनाये ।

श्रीप्रकाश शुक्ल



जब जब नीड़ बनाये हमनेंं

जब जब नीड़ बनाये हमनेंं, पास बसे पंछी 
मुस्काये ।
बोले, मोह जाल मेंं फस क्यों  फिरते हो भरमाये  ।

कोई पखेरू इस युग मेंं, जिसको मिट्टी से प्यार नहीं है ।
नहीं टिकेगा इन नीड़ों मेंं चाहे कोई लाख मनाये।

लुप्त हुये वो दिन अतीत के, मातृभूमि ही जब 
सब कुछ थी
अब तो ऐशो आराम की दुनियां हर पंछी का जी ललचाये 

इस भ्रमित मानसिकता का कारण अपनी  शिक्षा पद्धति ही है 
जिसमें विदेश के सुख साधन के हमने बढ़ चढ़ स्वप्न दिखाये 

है नितांत आवश्यक अब, हम समाज मेंं जाग्रति लायेंं
ऐसी प्रारम्भिक शिक्षा  दें, जो देश प्रेम की अलख जगाये।

जिस उपबन मेंं जन्म लिया और जहाँ चुगे 
खाने के दाने
वो शिक्षा जो इस उपबन के संरक्षण की सपथ दिलाये ।

अपना पेट पालने को तो सक्षम है हर अदना सा प्राणी
पर हमें चाहिए ऐसी शिक्षा जो पर हित का पाठ पढ़ाये 

एक बार यदि सफल हुये हम देश भक्ति उपजाने मेंं
तो स्वर्ण महल बन जायेंंगे "श्री" जो भी हमने नीड़ बनाये ।

श्रीप्रकाश शुक्ल



खिली धूप की चादर

बर्फीले पहाड पर फैली, खिली धूप की चादर 
लगता जैसे सिहर रहा हो भरा दूध का सागर

वर्षा आई कुछ दिन ठहरी साथ निभाकर चली गयी । 
अब गुजरे एहसास रुलाते बार बार सुधियों में आकर

कोहरा ओढे ठिठुर रहे हैं, ठूंठ हुये तरुवर सारे 
मानो ऋषि मुनि मूक खडे हैं इष्टदेव का ध्यान लगाकर 

यद्यपि तापमान बाहर का मन में उदासी भरता है 
पर दिनकर की उष्ण रस्मियां हर्षित करतीं छितराकर 

हिम बरसे चाहे कितना भी, या फिर झंझाबात दुसह हों
पर अमरीका के वासी करते "श्री" अपना सारा काम बराबर 

श्रीप्रकाश शुक्ल