कोई अपना यहाँ
नाते रिश्ते, सभी आज हैं, खोखले,
स्वार्थ की नींव पर, जो गए थे चुने
भावनाओं का निर्झर, बहा ही नहीं ,
शब्द के जाल, बिछते रहे नित घने
हर दिल में भरा है, घृणा का धुंआ
किसको,कैसे,कहे कोई अपना यहाँ
धन परिग्रह में हर व्यक्ति ऐसा जुटा,
जिन्दगी का सही अर्थ ही खोगया
दूसरों की ख़ुशी में जो पाए ख़ुशी,
ऐसा मर्दुम नदारत सा ही, होगया
दर्द महसूसें ओरों का, फुर्सत कहाँ
किसको,कैसे, कहे कोई अपना यहाँ
कुछ हवा ऎसी चलती, नज़र आरही,
दूसरों को दुखी देख, फरहत मिले फरहत =ख़ुशी
प्रीति का भोज बढ़ चढ़ के दे ज़ायका,
जब पड़ोसी के घर में ना चूल्हा जले
लहर विश्वास की, जी, ना पाए जहाँ
किसको,कैसे,कहे कोई अपना यहाँ
विरासत में पाए थे जो संस्करण,
अहम की तुष्टि में सब हवन कर दिए
ईर्षा का कुहासा रहा पौढ़ता,
बारी बारी बुझे ज्ञान के सब दिए
प्रणय प्यास बुझना है सपना यहाँ
किसको,कैसे,कहे कोई अपना यहाँ
कौन सी ले मुरादें हम आये यहाँ ?
क्या कोई ऐसा चिंतन संभारा कभी
कैसे दुनिया हो रोशन, बलंदी चढ़े,
क्या कोई ऐसा ज़रिया विचारा कभी ?
सब हों सुखमय, बधें प्रेम की डोर में
कह सकेंगे तभी, सब हैं अपने यहाँ
श्रीप्रकाश शुक्ल
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