Friday 17 May 2019

शब्द के गजरे 

शब्द के गजरे सजाऐ, प्रेरणा की वेणियों मेंं, 
पर न कोई झूल पायी, खिलखिलाती
हृदय पट पर
बन्दिशों के क्लिप उन्हें जकड़े हुए हैं इस तरह 
कुछ कर गुजरने की हुमक दम तोड़ती है तड़प कर

शक्ति की असमानता के गलत भ्रम को दूर करने
पुरषार्थ के हर कार्य को हमने संभाला सहज बढ़कर
और तुमने शब्द पुष्पों से तनिक सम्मान देकर
पंथ अवरोधित किया बन रुढ़ियां दुष्कर 

मैं आज संकल्पित सजग अपने हितों को  मांगती
लेकर रहूंगी भाग अपना सम्पत्ति, साधन, समय मेंं
स्वयं निर्धारित करूंंगी किस तरह हो उचित वितरण,
सब सार्वजनिक सुख साधनों का एक लय में

श्रीप्रकाश शुक्ल
लकीरें रह गयीं

लकीरें रह गयीं हैं शेष अब भी, देखने को उन पथों पर
पैर के छाले छुपाये था चला, संकल्प जिन पर  

था उन्हें विश्वास अविचल, अवरोधों की जड़ता क्षणिक है
कोई मुश्किल नहीं ऐसी, आसां न हो जो सुलझकर

सहते रहे पाषाण सम आघात अपने
निश्चयों पर
पर हुये विचलित नहीं, जब सामने था कटु कहर

निश्वार्थता उद्देश्य की स्पष्ट हो जब हर हृदय मेंं,
धर्म और धीरज भी तब, देते सहारा कवच बनकर।

कर्म ही इक ध्येय था जिन चिन्तकों के ध्यान मेंं "श्री"
सफलता ने बुहारी, आकर सतत उनकी डगर

श्रीप्रकाश शुक्ल
लकीरें रह गयीं

मात्र लकीरें रह गयीं शेष, जन मानस के हृदय पटल पर,
हो गये लुप्त वो संस्कार जो, युग युग से पाले,
जिन पर मोहित हो, सम्पूर्ण विश्व ने हमें विचक्षण संत कहा था ।

एक समय था भारतवासी हर, गर्वित था अपने मूल्यों पर, 
हर महिला मां थी और पडोसी था भाई सम,
जिनके संरक्षण में हमनेंं  हंस हंस दूभर कष्ट सहा था।

हमें गर्व था अपने भावों की उर्वर अभिव्यक्ति पर, 
भाषा चाहे किसी प्रान्त की, कोई भी हो,
वार्ता हो, प्रवचन हो या हो सामूहिक मन्थन, हर शब्द सतत शुचि भरा रहा था ।

अपने पहलू की सार्थकता पर अब जो तर्क दिये जाते हैं
चाहे कोई पंडित हो या हो अनपढ़ गंवार,
कलुषित मल का निर्झर बहता है 
जैसा अब तक नहीं बहा था ।

ऐसी विकृति मानसिकता पर "श्री" हर
कोमल हृदय बिलखता है 
हर कूंचा गली तिमिरमय दिखती,
क्या कोई आ ढ़ायेगा बदगोई का पहाड़, जैसा पहले हर बार ढ़हा था ।

श्रीप्रकाश शुक्ल
धूप से उठ के दूर

      ( मेरे बापू )

धूप से उठ के दूर कभी जो जा न पाया 
हर चाहत को जिसने, दिया प्यार का साया 

तपता रहा रात दिन जो, बस मेरी ही खातिर
मेरी खुशियों को जिसने, जीवन ध्येय बनाया 

जब भी उसको लगा कि मैं थोड़ी उदास सी हूं
खुद भी उदास ही रहा, न जब तक कारण दूर हटाया 

ये कौई भी और नहीं है, केवल मेरा बापू है 
जिसने मेरे परवरिश यज्ञ मेंं, अपना सर्वस्व चढ़ाया

दुनियां के सभी चहेतों मेंं, "श्री" बापू से बढ़कर और नहीं
मैं उसे कभी न बिसरा पाऊंगी, उससे बढ़कर कौई न भाया 

श्रीप्रकाश शुक्ल
धूप से उठ के दूर 
 
अरे प्रवासी अपने घर जब सहज प्राप्त थे, सुख साधन भरपूर
फिर ऐसी क्या आन पड़ी, जो गये धूप से उठ के दूर

इतना विषद गगन फैला है जिसमें करते विचरण स्वच्छंद
गाते गीत मगन हो मन के, हो मस्ती मेंं चूर

जितनी चाहे उड़ान भरते करते अपनी शक्ति परिक्षण
कोई भी अवरोध नहीं है करता नहीं कोई मजबूर 

दूर देश मेंं प्रत्याशी अब तुम, और किसी की कृपादृष्टि के 
रोज झिडकियां सहते उनकी, जो ओछे पद मेंं मगरूर

अभी समय है घर आ जाओ, देखो कितने प्रतिमान बने हैं
देख अचम्भित रह जाओगे, होगा "श्री" तुम्हें गरूर 

श्रीप्रकाश शुक्ल
घिरता है अंधियारा

प्रतिनिधित्व बिक रहा आज, खुले हुये बाजारों मेंं
लोकतंत्र मेंं एक वोट की कीमत लगी हजारों मेंं

प्रत्याशी कह रहे साफ, वोट तुम्हारा इक निवेश है
जब चाहो भुनवा सकते हो, करो उजागर यारों मेंं

ऐसे बिगड़े प्रजातंत्र मेंं, घिरता है अंधियारा ही
जनता होती दीन हीन, पलते चोर बहारों मेंं

नैतिकता गिरते गिरते आज रसातल पहुंच गयी है 
कदाचार मेंं माहिर नेता, निगलें धन कोष डकारों में

ये चिन्ता नहीं सर्वव्यापी, "श्री" केवल भारत में पनपी है 
इसका निराकरण डंडा है, जोश हो 
घर के रखवारों मेंं 
श्रीप्रकाश शुक्ल
घिरता है अंधियारा 

एक समय था कहते थे जब, चाहूं कोई नहीं सहारा  
मैं हूं मजदूर मेरे कौशल ने सारा संसार सवांरा


अब रोज सबेरे जल्दी उठ, चौराहे पर टिक जाते हैंं
शायद काम कोई मिल जाये, कहे न कोई नाकारा 

जैसे जैसे सूर्य चमकता, चढ़ता जाता है पारा
दिल पर दबाव बढ़ता जाता है, घिरता है अंधियारा 

कोई बासी खा कर आता, कोई साथ बांध लाता है
बिरला पाता काम, शेष हर जाता लौट थका हारा 

दुखदायी परिदृश्य है ये जब, इक कुबेर दूसरा विपन्न हो
और कदाचार इसकी जननी हो,
जाने ये समाज सारा 

बहुत सहा,अब और नहीं "श्री" पानी बह चुका शीश ऊपर 
अब कदाचार होगा समाप्त, होगी एक धारणा इक धारा ।

श्रीप्रकाश शुक्ल 




घिरता है अंधियारा 

एक समय था कहते थे जब, चाहूं कोई नहीं सहारा  
मैं हूं मजदूर मेरे कौशल ने सारा संसार सवांरा


अब रोज सबेरे जल्दी उठ, चौराहे पर टिक जाते हैंं
शायद काम कोई मिल जाये, कहे न कोई नाकारा 

जैसे जैसे सूर्य चमकता, चढ़ता जाता है पारा
दिल पर दबाव बढ़ता जाता है, घिरता है अंधियारा 

कोई बासी खा कर आता, कोई साथ बांध लाता है
बिरला पाता काम, शेष हर जाता लौट थका हारा 

दुखदायी परिदृश्य है ये जब, इक कुबेर दूसरा विपन्न हो
और कदाचार इसकी जननी हो,
जाने ये समाज सारा 

बहुत सहा,अब और नहीं "श्री" पानी बह चुका शीश ऊपर 
अब कदाचार होगा समाप्त, होगी एक धारणा इक धारा ।

श्रीप्रकाश शुक्ल 






 
त्थरोंं पर गीत लिक्खे

जो शत्रु के हाथोंं मेंं भी, चट्टान से
अविचल रहे,
वो साहसिक, भुज बल समेंटे, विपरीत धारा के बहे ।

अपनी धरा प्रति प्रेम जिनका, था सदा ही गगनचुम्बी,
 जो कहा, करके अमिट, दिल मेंं  सब के छा गये।

पुरु ने प्रत्युत्तर मेंं सिकन्दर से कहे थे शब्द जो,
आज उनके अक्स, सहसा उभर सन्मुख आ गये।

बलि का स्वयं को नपा देना, भीष्म की भीषण प्रतिज्ञा,
 निज सुरक्षा कवच देना,  याद फिर से दिला गये।

ऐसे अनेकों बांकुरे "श्री"भूमि भारत पर उगे,  
इन सभी ने पत्थरों पर गीत लिक्खे आन बान निभा गये।
 
श्रीप्रकाश शुक्ल
घिरता है अंधियारा

प्रतिनिधित्व बिक रहा आज, खुले हुये बाजारों मेंं
लोकतंत्र मेंं एक वोट की कीमत लगी हजारों मेंं

प्रत्याशी कह रहे साफ, वोट तुम्हारा इक निवेश है
जब चाहो भुनवा सकते हो, करो उजागर यारों मेंं

ऐसे बिगड़े प्रजातंत्र मेंं, घिरता है अंधियारा ही
जनता होती दीन हीन, पलते चोर बहारों मेंं

नैतिकता गिरते गिरते आज रसातल पहुंच गयी है 
कदाचार मेंं माहिर नेता, निगलें धन कोष डकारों में

ये चिन्ता नहीं सर्वव्यापी, "श्री" केवल भारत में पनपी है 
इसका निराकरण डंडा है, जोश हो 
घर के रखवारों मेंं 
श्रीप्रकाश शुक्ल
धूप की अनगिन शिखायेंं

आकाश धरती चांद सूरज और खुबसूरत फिज़ायें
प्राण भरतीं जिन्दगी मेंं धूप की अनगिन शिखायें

अरुणिम किरण जब सूर्य की नित प्रात मुंह को चूमती है
आभास होता स्वर्ग सुख, जैसे परींं अमृत पिलायें

रात्रि शशिधर चांदनी संग जब गगन मेंं डोलते हैं
कण कण धरा का मुस्कराता, नदी तरुवर खिलखिलायेंं

मूलतः वो तत्व जिससे, सारा जगत निर्मित हुआ है 
उपहार मेंं हम पागये, आओ घुल मिल दिन बितायेंं

अनुपम प्रकृति की देन का संभव नहीं ऋण चुका पाये़ंं
संकल्प लेंं, रक्खेंं सुरक्षित, "श्री "रूप दिन दूना बढ़ायें

श्रीप्रकाश शुक्ल
अपने बियावान सन्नाटे

अपने बियाबान सन्नाटे मेंं कब तक तू कैद रहेगा
दर्द न बाहर आ पायेगा जब तक चुपचाप सहेगा

 मिलना और बिछुड़ना जग मेंं स्वाभाविक सी रीति रही है 
इन्हें संजोएगा आंचल मेंं  तो फिर कष्ट सहेगा

पंछी जो पाले थे तुमने, वो तुम से थे, नहीं तुम्हारे थे 
नीड़ छोड़ उड गये अगर तो कब तक यादों मेंं बहेगा

चिन्तन मनन ध्यान और पूजा या संगीत साधना हो 
इनका आश्रय प्रामाणिक है, बेशक मन का बोझ ढ़हेगा

भावना नियन्त्रित रहे अगर "श्री " मन भी स्थिर हो सकता है 
दिशाहीन पथ त्याग बंधा मन निश्चय सदमार्ग गहेगा

श्रीप्रकाश शुक्ल

वेटेरन का खुला प्रस्ताव

निःशब्द हैं हम इस समय कुछ भी नहीं कह पायेंगे
संकट की ऐसी घड़ी मेंं आवाज़ दो 
हम आयेंंगे

दुश्मन की ये नापाक हरकत खुल के संदेशा दे रही
अब रहे निश्क्रिय तो जग मेंं भीरु ही कहलायेंगे

भूल मानव मूल्य जब बाध्य दुश्मन कर रहा है ।
शेष कोई मार्ग अब बचता नहीं जिसको हम अपनायेंगे

संकल्प ले आगे बढ़ो, सम्मान सारा दांव पर है 
विश्वास रक्खो एक जुट हम विजय निश्चिंत पायेंंगे

जिन मानकों पर अब तलक हम सदा गर्वित रहे  "श्री"
उनको दोहरा कृत्य से, नव इत्तिवृत इक बनायेंंगे । 

श्रीप्रकाश शुक्ल
सूरज की छवियां

जो तप कर स्वयं अहर्निश, जग मेंं प्रकाश फैलातीं हैं
ऐसी सूरज की छवियांं युग युग तक पूजी जातींं हैं 

भारत की पावन तपो भूमि, अनगिन  सूरज की जननी है
जनहित जिनका त्याग याद कर, आंखें भर आतींं हैं

वो दधीचि, पन्ना धाई, गुरु गोविंद और झांसी की रानी
इनके बलिदानों की गाथाएं, पीढ़ियाँ अनवरत गातींं हैं 

यदि जीवन का लक्ष्य खुशी है तो पाओगे प्रेम त्याग से, 
धन धान्य संचयन की उधेड़बुन कष्ट अन्ततः लातींं हैं 

कितने भाग्यवान हैं हम "श्री" ऐसे कल मेंं जन्मे  हैं 
आधारभूत वांक्षित सुविधाएं सहज प्रयास मिल जातींं हैं 

श्रीप्रकाश शुक्ल
सूरज की छवियां

आ रहे हैं विभाकर, मंदगति आकाश मेंं
साथ मेंं ले उषा को, बांध निज भुज पाश में

इस अवतरण का अमीरस, पीते रहे हम नित्य प्रातः
फिर भी न पाई तृप्तिता   बढती हुयी सी प्यास मेंं

कान्तिमय सजता रहा नभ, नित्य ही इक सुन्दरी सा
कूंकुम की बिंदिया उषा की, भरती नशा एहसास मेंं

आलोक के ये जनक रवि हैं, पूज्य सारे जगत मेंं
ऊर्ज्वसित करें कण कण को जग में पीत वर्णी लिबास मेंं

सूरज की छवियाँ विपुल "श्री ",कवि कलम से निसृत हुयींं 
प्रकृति प्रेमी रहे डूबे, इस अप्रतिम
छवि की मिठास में 

श्रीप्रकाश शुक्ल


पूजनीय कान्ति जिज्जी ब्रह्मलीन हो गयीं आज 

पटकापुर के आंगन से इक दिव्य
आत्मा विदा ले गयी 
छोटे बडे सभी की आखों से दुखद अश्रु की झड़ी दे गयी

इतना विसाल आत्मीय सौम्य व्यक्तित्व
न देखा था हमने
अपने स्नेह की अमिट छाप दे प्रतिदिन रोने की घड़ी दे गयी 

सेवा भाव हृदय में भर निज कर्तव्यों पर अटल रही जो
कैसे शान्त रहेंं आपद मेंं  ऐसी शिक्षा की इक लड़ी दे गयी 

जीवन साथी की देख रेख मेंं अपना तन मन अर्पण कर,
निष्काम भाव से कैसे जुटते इस की इक पावन कड़ी दे गयी 

मेरी पूजनीय जिज्जी जो थी शान्ति स्वरुपा कान्ति नाम "श्री"
इस नश्वर जग को छोड सदा को हम सब को सीखें बड़ी दे गयी
संतप्त हृदय 
श्रीप्रकाश 
नया प्रष्ठ फिर आज खुला है 

राजनीति के इत्तिवृत का, नया प्रष्ठ फिर आज खुला है
सभी दिखे कालिमा समेटे, नहीं दूध का कोई धुला है

उद्देश्य रहा सत्ता मेंं जाकर, जन हित कार्यों मेंं जुट जायेंं
कितना किसका योगदान है, जनता द्वारा रोज तुला है 

लोक तंत्र मेंं वो ही नायक समुचित सम्मान जुटा पाता है
जिसके दिल मेंं संवेदना ढ़ेर सी, सच्चा प्यार घुला है 

निस्वार्थ भाव से सेवा का व्रत, तभी सफल हो सकता है
जब इन्द्रियां नियन्त्रित हों, मानव मन बड़ा चुलबुला है

जीवन मेंं सदभाव, प्रेम ही संचित योग्य अमूल्य निधि हैं
प्राणवायु अस्थिर "श्री" तन मेंं, उड़ता हुआ बुलबुला है ।

श्रीप्रकाश शुक्ल

नई सुबह के लिये 

नई सुबह के लिये प्रतीक्षित आतुर मन सो सका न पल भर  
सुबह उठा खिड़की खोली, थे भरे तिमिर से भू अम्बर

जन सैलाब सडक़ पर था, था खतरे से सौ गुना प्रदूषण
यद्धपि सभी मास्क पहने थे, फिर भी दस गुना जा रहा छनकर 

मोटर कार, सायकिल, रिक्सा, साथ चल रहे कदम मिलाकर 
अर्द्ध नग्न भूखे बच्चे थे भीख मांगते दौड़ दौड़कर 

रोजगार दफ्तर के आगे भीड़ लगी थी मेले जैसी 
शान्त व्यवस्था रखे हुये थे, चन्द सिपाही हांक हांक कर 

जब पावन भू पर जन्मेंं हम, तब ये सोने की चिड़िया था
आज देख उसकी हालत "श्री" मन रोता है विलख विलख कर 

श्रीप्रकाश शुक्ल

विश्व त्रसित कलयुगी मार से, गगरी भर रही अंधेरों से 
नई सुबह के लिए कोई इक युक्ति विशिष्ट सुझानी होगी

सुख साधन प्रति अमिट लालसा, कलुषित कर रही विचारों को
निर्वस्त्र दिख रही मानवता, स्तुति मिलती कटु उदगारों को
मर्यादा की लक्ष्मण रेखाएं स्वतः मिट  रहीं हैं समाज से
निंदनीय गतिविधियों में रत, गरिमामंडित हो रहे ताज से
आशाओं के पुष्प अगर मन उपबन मेंं कुसुमित रखना है
तो फिर.कर्म भूमि की मिट्टी उर्वर अधिक बनानी होगी

आवश्यक है उमड़ी हुयी आंधियों  से गन्तव्य न ओझल हो पाये
पंचशील के सिद्धांतों को फिर से जग उर से अपनाये
आधारभूत अभिलाषायेंं हो सकें पूर्ण
जन जन की
सारा विश्व इस तरह पनपे जिस तरह छटा नैसर्गिक बन की

श्रीप्रकाश शुक्ल