Friday 17 May 2019


विश्व त्रसित कलयुगी मार से, गगरी भर रही अंधेरों से 
नई सुबह के लिए कोई इक युक्ति विशिष्ट सुझानी होगी

सुख साधन प्रति अमिट लालसा, कलुषित कर रही विचारों को
निर्वस्त्र दिख रही मानवता, स्तुति मिलती कटु उदगारों को
मर्यादा की लक्ष्मण रेखाएं स्वतः मिट  रहीं हैं समाज से
निंदनीय गतिविधियों में रत, गरिमामंडित हो रहे ताज से
आशाओं के पुष्प अगर मन उपबन मेंं कुसुमित रखना है
तो फिर.कर्म भूमि की मिट्टी उर्वर अधिक बनानी होगी

आवश्यक है उमड़ी हुयी आंधियों  से गन्तव्य न ओझल हो पाये
पंचशील के सिद्धांतों को फिर से जग उर से अपनाये
आधारभूत अभिलाषायेंं हो सकें पूर्ण
जन जन की
सारा विश्व इस तरह पनपे जिस तरह छटा नैसर्गिक बन की

श्रीप्रकाश शुक्ल

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