Wednesday 27 January 2021

 भले ही साथ मत 



भले ही साथ मत देना,न उकसाना अबोधों  को   
न रखना मोड़कर बांधे, कभी सुकुमार पोधों को 
एक दिन होकर बड़े ये, जिन्दगी का मर्म समझेंगे 
घिनौनी सोच से उपजे, तुम्हारे कर्म समझेंगे 


बंधा पानी जब खुलता है, तो चट्टानें निगलता है 
कुर दबे अरमान का ज्वालामुखी सम उभरता है 
हम चल पड़े संकल्प ले, बागवां अपना सजाने को 
अरे क्यों कर रहे कलुषित हमारे आशियाने को 
मेरी गलियों की मिट्टी से, तुम्हारी सांस रुकती है 
खिले हर फूल की खुशबू, तुम्हारे दिल में चुभती है 
मगर जो ठान बैठे हैं,वो भागीरथ इरादा है 
विषैले सांप कुचले जायेंगे,ये मेरा वादा है 
मारते हम न चीटी तक, पिलाते दूध व्यालों को 
हैं करते माफ हम शिशुपाल जैसे शतक पापों को 
सबको चलेंं हम साथ ले,  विश्वास देकर, राह अपनी 
पर नहीं भाती है "श्री", कोई   कुटिलता पूर्ण करनी 

श्रीप्रकाश शुक्ल 

  अपरिचय के आंगन में


जब खुशियों का सागर उमड़ा हो, मना 
रहा हो मन सुखराना ।
एक अपरिचय के आंगन में दीप जलाकर रख आना।।

यदि अपना सुख छोड़ न पाये देख अपरिचय की बेहाली।
तो फिर जीवन व्यर्थ गया, ऐसा ऋषि मुनियों ने माना ।।

बड़ी विलक्षण प्रकृति रीति है काल चक्र गति से निर्धारित ।
संचालन जिससे होता हैं सुख दुख का आना जाना ।।

संभव है भागीरथ प्रयास भी रख न सके जीवित जिजीविषा ।
और किसी की विषम परिस्थिति कर दे असाध्य उसका रह पाना ।।

ऐसे मेंं मानवता कहती है, जा उसके घावों पर फाहा रख ।
और उचित है साहस देकर टूटे मन को धैर्य बधाना ।।

वैभव कितना भी अतीव हो पर मन उद्दिग्न  रहेगा "श्री "।
मन की शान्ति सहेज पाने को होगा सेवा धर्म निभाना ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल

 केवल तेरे ही अधरों पर


आदेश हुआ है लिखूं गीत मैं केवल तेरे ही अधरों पर ।
इक आराधक का मान और क्या हो सकता है इससे बढकर ।।

तेरे अधरों की लाली से प्रकृति नटी ने लालिमा चुरायी,
बिखरायी वो गुलाब की कलियों में और ऊषा की किरणों पर
 
तेरे अधरों के स्पर्श मात्र से मुखर हुयी मुरली की मृदु ध्वनि,
मंत्र मुग्ध हो गये जिसे सुन, जगती के पशु पक्षी और नारी नर

तेरे अधरों से प्रस्फुटित हुया जीवन यापन का अद्भुत दर्शन,
जिसका लेकर आधार जगत के मूल्यों ने पाये नवीन स्वर

चाहे पावन पथ हो प्रेम मार्ग का या वीरोचित शौर्य कर्म का,
"श्री" ने पायी असीम अनुकम्पा संरक्षक रहे सदा मुरलीधर

श्रीप्रकाश शुक्ल

 पुरखों  के  देवालय


नव यौवना बधू जब, घर में पहला कदम बढ़ाती है
पुरखों के देवालय मेंं जा, अपना शीष नवाती है
ये परम्परा सदियाँ से, भारत में चलती आयी है
हर अभिभावक और पुत्री ने, स्वेच्छा से अपनायी है

देवालय में दृढ़ स्थित हैं, युग युग से पलते संस्कार 
सब से प्रेम भाव रखना, सुशिष्ट और 
सुन्दर विचार
साथी समाज के प्रति, अपने कर्तव्यों को अपनाकर
मातृभूमि की रक्षा में कर सकना, अपना जीवन निसार

घर के अन्दर देवालय होना, बढ़े गर्व की बात है
सदव्यवहार, सादगी, साहस पुरखोंं की सौगात है 
हम स़कल्पित जीवन भर " श्री" यह
भेंट सदा आदर्श रहेगी
जब हम होंगे  विश्व गुरू यह शिक्षा अपनी बात कहेगी 

श्रीप्रकाश शुक्ल

 दीपाली पर जगमग जगमग, जब सारे घर होते  

मिटता तमस वाह्यान्तर का, मन आल्हादित होते 

यदि हम जन जन के मन में, कर्तव्य भावना भर पाते 
जीवन पथ होता ज्योतिर्मय, हम नीद चैन की सोते 

पर हम व्यस्त रहे पौढ़ाने, ऊंच नीच नफरत की बेलें 
कर सकते थे प्रकाशमय जीवन, यदि बीज प्यार के बोते 

इस दीपावलि पर तो प्रकृति क्रोध से कांप रही है धरणी
दीप बुझ रहे नित्य अनेकों,सम्पन्न राष्ट्र भी दिखते रोते 

अब तो मात्र एक साधन "श्री" जो दीपावलि को शुचि रक्खे ।
मन में हो प्यार, रहे दूरी, रहेंं खूब कर धोते। 


श्रीप्रकाश शुक्ल

 क्षणिक दो घड़ी के लिये जग तमाशा


सारा जग इक रंग मंच है जन मानस है कठपुतली। 
नचा रहा दिकदर्शक सबको ,जैसे सूत की तकली।। 

क्षणिक दो घड़ी के लिये जग तमाशा बन, हम सारे,
मर्कट सम भटक रहे हैं, नगर नगर  और गली गली । 

यद्यपि उसने भेजा है, कर्म सभी का निर्धारित कर,
पर हम राग अलाप रहे, बजा के अपनी अपनी ढ़पली 

परहित धर्म बताया उसने, दीन हीन पर दया भाव,
पर मदान्ध हम पाहन सम हैं, ऐंठन ज़रा न पिघली

अभी समय है चेत रे मन, फिर पीछे पछतायेगा,
करो शुभ काम, भजो "श्री"राम, अंत में जीभ हिली न हिली । 

श्रीप्रकाश शुक्ल

 क्षणिक दो घड़ी के लिये जग तमाशा


सारा जग इक रंग मंच है जन मानस है कठपुतली। 
नचा रहा दिकदर्शक सबको ,जैसे सूत की तकली।। 

क्षणिक दो घड़ी के लिये जग तमाशा बन, हम सारे,
मर्कट सम भटक रहे हैं, नगर नगर  और गली गली । 

यद्यपि उसने भेजा है, कर्म सभी का निर्धारित कर,
पर हम राग अलाप रहे, बजा के अपनी अपनी ढ़पली 

परहित धर्म बताया उसने, दीन हीन पर दया भाव,
पर मदान्ध हम पाहन सम हैं, ऐंठन ज़रा न पिघली

अभी समय है चेत रे मन, फिर पीछे पछतायेगा,
करो शुभ काम, भजो "श्री"राम, अंत में जीभ हिली न हिली । 

श्रीप्रकाश शुक्ल

 रखों  के  देवालय


नव यौवना बधू जब, घर में पहला कदम बढ़ाती है
पुरखों के देवालय मेंं जा, अपना शीष नवाती है
ये परम्परा सदियाँ से, भारत में चलती आयी है
हर अभिभावक और पुत्री ने, स्वेच्छा से अपनायी है

देवालय में दृढ़ स्थित हैं, युग युग से पलते संस्कार 
सब से प्रेम भाव रखना, सुशिष्ट और 
सुन्दर विचार
साथी समाज के प्रति, अपने कर्तव्यों को अपनाकर
मातृभूमि की रक्षा में कर सकना, अपना जीवन निसार

घर के अन्दर देवालय होना, बढ़े गर्व की बात है
सदव्यवहार, सादगी, साहस पुरखोंं की सौगात है 
हम स़कल्पित जीवन भर " श्री" यह
भेंट सदा आदर्श रहेगी
जब हम होंगे  विश्व गुरू यह शिक्षा अपनी बात कहेगी 

श्रीप्रकाश शुक्ल

 चाहे दिनकर का उर्वशी काव्य हो या बाल्मीकि की रामायण ।

बचन निभाये गये पूर्णतः यदि मिला न कोई विशिष्ट कारण ।।

यहाँ आपने स्वेच्छा से नियमों की
रूह उधेड़ी है ।
और बताये गये अनियम का किया न कोई पू्र्ण निवारण।।

इस कारण प्रोटेस्ट रूप में हमने ये योजना बनाई है ।
रचना तो हम सृजन करेंगे, पर नहीं 
करेंगे नामकरण ।।

जीवन मेंं व्यस्तता सभी को, पर कुछ जन हित आवश्यक है ।
इसका दायित्व उन्हीं पर जाता जो बन सकते हैं उदाहरण ।।
 
आवश्यक था मारुतिनन्दन को भी शौर्य शक्ति बतलाई जाये ।
इसीलिए "श्री"" करते रहिये, ई कविता का नित पारायण ।। 

 श्रीप्रकाश शुक्ल