Tuesday 21 December 2021

 नदी किनारे घूमे

शिव रात्रि के महा पर्व पर सुरसरि से जल लाना था
देवादिदेव श्री महादेव के चरणों में, जिसे चढ़ाना था
नदी किनारे घूमे हम, पर मिल न सका स्थान कोई
जहां से चलकर जल प्रवाह तक संभव हो पाता जाना ।
पार्श्व खड़े केवट ने मेरे मन की उलझन पहचानी
बोला चलो नाव पर मेरी मुझको भी कुछ पुण्य कमाना
सुरसरि के चारों ओर खिली थी शान्त सरल निर्मला चांदनी
नभ के तारक दल प्रतिबिम्बित हो
जल में भरते दृश्य सुहाना
अवर्णनीय रही तन्वंगी गंगा और केवट की तरणि सुगड़
इक पावन दिन पर ऐसा सुयोग "श्री" संभव होगा नहीं भुलाना
श्रीप्रकाश शुक्ल

 ताना बाना बुने कबीरा

ताना बाना बुने कबीरा, कहे पते की बात
इंसानियत ही मूल मंत्र है, सबसे बढ़कर सौगात
जाति धर्म और लिंग भेद से, बने न कोई बात
सब प्राणी हैं एक सम, जस इक तरुवर के पात
बोओगे यदि वैर, रंजिश, उपजेंगे उत्पात। रोपोगे सदभाव तो, हो खुशियों की
इफरात
बेसुमार धन भर लिया, जुटा जुटा दिन रात
फिर भी मन बेचैन क्यों, दी न कभी खैरात
चिन्ताजनक स्थिति जग की, बिगड़े हैं हालात
गुरु कबिरा की सीख बिन "श्री" संभव नहीं निज़ात
श्रीप्रकाश शुक्ल

 जीवन में कैसे अर्थ भरें ?

हम स्वतंत्र भारत के वासी अपना भाग्य स्वयं लिखते हैं
फिर क्यों द्वेष घृणा के पौधे हर घर में पलते दिखते हैं
जैसे जैसे हम बड़े हुए, साथी सद्भाव साथ छोड़ता गया
माल्यार्पण सुख का लालच उजले सम्बन्ध तोड़ता गया
अपनत्व भरे सुखमय अतीत की यादें मन में वाकी हैं
चारो ओर भीड़ उमड़ी है फिर भी जीवन एकाकी है
किसी अधर पर नहीं दिखी,चिंता मुक्त हंसी अब तक
अवसादों के सागर में डूबा,गुजरेगा ये जीवन कब तक
जीवन का अपना अर्थ न होता, अर्थ डालना होता है
जीवन तो मात्र एक अवसर है, खुद संभालना होता है
सांसों को नयी सृजनता दो, व्यर्थ न यों बरबाद करो
नाचो गाओ, गीत रचो, खुद को खोजो, प्रभु ध्यान धरो
श्रीप्रकाश शुक्ल
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 आचार्य शुक्ल की चिन्तामणि हो या

बाल्मीकि की रामायण ।
दिनकर का उर्वशी काव्य हो या
तुलसी का मानस पारायण ।।
ये सब ग्रन्थ भाव पूरित हैं,
साहित्य जगत के आभूषण ।
इनमें शशि की शीतलता है,
अम्बरमणि की उष्णता अरुण ।।
अम्बुद जैसे जीवनरस धारक, सागर सा गहरा घनत्व है।
तरुवर जैसी सहिष्णुता उर,
तन मन पोषक भरा तत्व है ।
नदियों जैसा प्रवाह सिखलाते,
जन हित पूरक हर कृतित्व है ।
जीवन यापन के जटिल मार्ग में
इन प्रदर्शकों का अति महत्व है।।
जीवन के तीसरे चरण में जब
एकाकीपन घिर आता है ।
और समय की पाबन्दी से घटना क्रम निजात पाता है ।।
तो ये मनीषियों की ग्रन्थावलियां एक सहारा बन आती हैं।
दूर उदासी कर तन मन की "श्री,"
नवीन ऊर्जा भर जातींं हैं ।।
श्रीप्रकाश शुक्ल

 अब उस अतीत के खंड़हर में

चलो आपको ले चलते हैं, अब उस अतीत के खंडहर में
उगी, पली, पनपी, लतिकायें अरमानोंं
की, जिस परिसर में
दोसो वर्षो की पराधीनता, तोड़ चुकी थी जिजीविषा
पर सुकर्मों के फलीभूत, कुछ कमल खिले उजडे बंजर में
बढ़ी सुगवुगाहट, शनै शनै राष्ट प्रेम ने तंद्रा तोड़ी
भिढ़ गये सभी संकल्पित हो, भरकर विश्वास अड़िग उर में
फिर बने प्रगति के विविधालय, छाई चहुं ओर बहुमुखी प्रतिभा
हम मंजिल की ओर बढ़ चले, लेकर कुदाल कर्मठता की कर में
थी दृष्टि हमारी नीलगगन में, पर जमीन पर रहे पैर
अब अपनी ये सोच मांगलिक,फैलायेंगे "श्री" जग भर में
श्रीप्रकाश शुक्ल
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 अब उस अतीत के खंड़हर में

चलो आपको ले चलते हैं, अब उस अतीत के खंडहर में
उगी, पली, पनपी, लतिकायें अरमानोंं
की, जिस परिसर में
दोसो वर्षो की पराधीनता, तोड़ चुकी थी जिजीविषा
पर सुकर्मों के फलीभूत, कुछ कमल खिले उजडे बंजर में
बढ़ी सुगवुगाहट, शनै शनै राष्ट प्रेम ने तंद्रा तोड़ी
भिढ़ गये सभी संकल्पित हो, भरकर विश्वास अड़िग उर में
फिर बने प्रगति के विविधालय, छाई चहुं ओर बहुमुखी प्रतिभा
हम मंजिल की ओर बढ़ चले, लेकर कुदाल कर्मठता की कर में
थी दृष्टि हमारी नीलगगन में, पर जमीन पर रहे पैर
अब अपनी ये सोच मांगलिक,फैलायेंगे "श्री" जग भर में
श्रीप्रकाश शुक्ल
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