Saturday 15 August 2020

 तमस से लड़ रहा


जो तमस से लड़ रहा है,
ज्ञान का दीपक जलाकर 
वो सदा आनंदमय है
आसुरी वृतियाँ  मिटा कर  

सच के समर्थन में कभी,
मुड़कर नहीं हम देखते 
टूट जायेंं भले ही, पर
न झुकते अंश भर 

यदि कोई सोचे, डरा कर
साहस हमारा छीन लेगा
तो जान ले, हंसते हैं हम
मौत को समकक्ष पाकर

जब समस्याएं सामने
आती हैं जुटकर ढ़ेर सी 
इक ज्योति सी उठती है
मन, हौसला होता प्रखर

कर लो प्रतीक्षा और थोड़ी
समय न्यायाधीश होगा 
दूर अब वो दिन नहीं "श्री"
आग बरसेगी धरा पर

श्रीप्रकाश शुक्ल
  

 तमस से लड़ रहा


प्रकृति नटी ने आज रूठ, ऐसा परिदृश्य दिखाया है
जो निश्चित ही कल्र्पनातीत सारा जग घवराया है 

सोच जन्य व्याधियां जगत की पहले से भी ढ़ेरोंं थीं
अव शारीरिक व्यथा रूप, रक्तवीज सा उग आया है 
  
सारा धनवन्तरि समूह, जो तमस से लड़ रहा निरन्तर
नैराश्य ओढ़े पस्त है बृह्मास्त्र नहीं बन पाया है 

मानव संकल्पों से वैसे तो घोर अंधेरे हारे हैं 
पर स्वाभाविक है मन के कौने मेंं छुपा हुआ ड़र का साया है 

चिन्ता नहीं तनिक भी "श्री" इन दैविक व्यवधानों की 
चिन्ता उसकी करनी, जिसने 
दुश्मन गले लगाया है ।

श्रीप्रकाश शुक्ल

 ख़ालीपन निशब्द घरों मेंं


युद्ध की भयावहता 
से परिचित सभी आज, युद्ध किसी वाद का निदान नहीं लाता है 
सम्पत्ति का ह्रास तो होता ही है उभय पक्ष, प्राणों का हतन असहनीय हो जाता है  

कुटिल पड़ोसी जब सहमति जन्य सम्मति त्याग, सीमा पर अपना विस्तार फैलाने लगे 
शान्ति का पूजक भी राष्ट्र हित में तब, दो दो हाथ करने को वाध्य हो जाता है  
 
त्राहि त्राहि गूंजने लगती है चारौ ओर, भर जाता है खालीपन निशब्द घरों में, 
होकर सशंकित सम्पूर्ण विश्व एक साथ, स्वयं की सुरक्षा आंकलन में जुड़ जाता है 

चाहता न कोई कभी, दूसरों के  मसले में दख़ल दे, बिना विशेष कारण के,
पर सागर में उमड़ती घूमती भंवर की भांति, शनै शनै उसमेंं फंसता चला जाता है  

भारत भी आ पहुंचा आज, ऐसी ही स्थिति में, धृष्ट पड़ोसी के छल भरे मंतव्य से 
विस्तारवादी धारणा से ग्रसित जो, 
सीमा पै आंखें गढ़ा, बंदर भभकी दिखाता है 

शिशुपाल जैसे अनिष्ट कार्य सौ कर चुका शत्रु, पर हम अभी भी धैर्य  धारण करे हैं "श्री," 
चुक गये उपाय समझाने बुझाने के, उपचार चोट किए बिना नज़र नहीं आता है ।

श्रीप्रकाश शुक्ल

  घर बापसी


चारौ ओर भरा था ख़ालीपन निशब्द घरों में 
जब से मजदूर गांव छोड़ आये थे शहरों  में 

हतप्रभ बूढ़े बापू रोज काम पर जाते थे
पाते थे खाने भर दाने शक्ति नहीं थी पैरोंं में

परस रहा था शून्य हर गली धमा चौकडी गायब थी 
इधर बन्द थी किलकारी कौने के छोटे कमरों मेंं

बारह घंटे जुटे नगर में फुरसत नहीं सांस लेने की
सम्भव नहीं निकल पाना था घर  बाहर थे पहरों  में

फिर जब फैला कहर विश्व में समय बना रहबर
हुयी बापिसी घर लौटे मात पिता के चरणों में

गलियां चौपालें ताल तलैय्या गाय भैंस मठिया,
झूम उठे सब के सब "श्री "ड़ूब खुशी की लहरों में

 श्रीप्रकाश शुक्ल


 

Shriprakash Shukla wgcdrsps@gmail.com

Wed, Jul 29, 11:31 PM
to ekavita
सासों में भी घुल जाये अंधियारा

कितने भी ज्ञान दीप ज्योतित हों, 
कितना भी हो सबल सहारा
होता कठिन उभरना जब सासों में भी घुल जाये अंधियारा

ढ़ेरों तमसाच्छादित घड़ियां सम्भावित हैं जीवन में, आयेंगी
सबसे असहनीय पल वो होता,  जब अपने कर जांए किनारा 
 
अत्यन्त जरूरी है मिलना अवसाद और असफलतायें पथ में
पाठ पढ़ा जाती हैं ऐसा, हम जिससे फिसलें नहींं दुबारा 
 
सासों में अगाध गहराया तम, तन को खोखला बनाता है 
जैसे तरु में पौढ़ी दीमक खा जाती है सारे का सारा 

संतुलन भावनाओं पर रख पाना "श्री"  है अद्भुत दैवीय कला 
जिसने इसमेंं पायी प्रवीणता कर गया पार उच्श्रंखल धारा 

श्रीप्रकाश शुक्ल

 एक अपरिचय के आंगन में


जब खुशियों का सागर उमड़ा हो 
रहा हो मन सुखराना ।
एक अपरिचय के आंगन में दीप जलाकर रख आना।।

यदि अपना सुख छोड़ न पाये देख अपरिचय की बेहाली।
तो फिर जीवन व्यर्थ गया, ऐसा ऋषि मुनियों ने माना ।।

बड़ी विलक्षण प्रकृति रीति है काल चक्र गति से निर्धारित ।
संचालन जिससे होता हैं सुख दुख का आना जाना ।।

संभव है भागीरथ प्रयास भी रख न सके जीवित जिजीविषा ।
और किसी की विषम परिस्थिति कर दे असाध्य उसका रह पाना ।।

ऐसे मेंं मानवता कहती है, जा उसके घावों पर फाहा रख ।
और उचित है साहस देकर टूटे मन को धैर्य बधाना ।।

वैभव कितना भी अतीव हो पर मन उद्दिग्न  रहेगा "श्री "।
मन की शान्ति सहेज पाने को होगा सेवा धर्म निभाना ।।

श्रीप्रकाश शुक्ल



 एक नवगीत


कहाँ आगये चलते चलते 
और कहाँ था जाना 
भूल गए ख़ुशबू धरती की,
चिड़ियों का गाना  

चाहा था बाग बनाऊं,
प्रकृति नटी के आंगन
बहकें जहाँ मधुर कलियाँ,
सुन तरुओं की धड़कन 
पुलकित होगा हृदय निरख
चिड़ियों का इठलाना

चाहा था मलय पवन आकर 
कर दे प्रमुदित मन 
उपजे जीवन कलि में
इच्छा, छू ले जो जन जन 
कर गये विदेश पलायन
टूटा ताना बाना 

श्रीप्रकाश शुक्ल

 तुम निरन्तर 

बुझ रहे हो


यदि केवल 
खुद से प्यार है 
सुन्दर सम्मति 
अस्वीकार है 
बिन कारण ही
उलझ रहे हो
तुम निरन्तर
बुझ रहे हो

ज़िद ने पुरजोर 
जकड़ रक्खा है
"मैं'' ने मन को 
पकड़ रक्खा है 
कस्दन बन
बेसमझ रहे हो
तुम निरन्तर 
बुझ रहे हो 
 
 
श्रीप्रकाश शुक्ल