कुछ दिन पहिले लन्दन के ही एक उद्द्यान में घूमते हुए ध्यान में आया कि मेरे कविता लिखने का अभिप्राय क्या है मैं इससे क्या चाहता हूँ ? मैं जिस बातावरण में बैठकर लिख रहा हूँ उसका, और उनका जिनके लिए लिख रहा हूँ कोई ताल मेल है क्या ? क्या मेरी सिसकतीं हुयी सांसे उन तक पहुच सकेंगी ? उत्तर तो अब तक नहीं मिला लेकिन सोच को ही एक रचना का रूप मिल गया I क्या सोच रहा था पढ़िए यहाँ :-
क्या लिखूं? कैसे लिखूं?
लिखना मेरा तभी सार्थक,
अर्थपूर्ण, शाश्वत, चिन्मय,
शब्द हमारे मिटा सकें जब,
कसक,पीर, दुःख उनका
दिशाहीन, निरूद्देश,
चेतना पड़ी अचेतन,
ओढ़ विषमताओं की चादर,
सोया पड़ा भाग्य जिनका
जीवन के झंझावात निठुर,
झकझोर गए जिनका तन मन बल,
और परिस्थितियाँ पाषाणी,
छीन ले गयीं जिनके संबल
सहकर कठिन थपेड़े निष्ठुर,
कुछ छोटे सपने जो बोये
चली नियति की आंधी ऐसी,
जगने से पहिले ही खोये
अब मैं चाहूँ गीत हमारे,
उनमें भरे शांति की आशा
प्रेरक और प्रोत्साहक हों,
फिर से जले बुझी प्रत्याशा
सुशुप्त चेतना हो प्रबुद्ध,
जब गायें गीत प्रभाती के स्वर
स्वस्थ भावनाएं मुखरित हों,
हरसिंगार पुष्प बन झर झर
नहीं शब्द स्वर में रसमयता,
नहीं शब्द भंडार निमज्जित,
कैसे भरूँ अकृतिम भावुकता,
प्राणवान, गरिमामंडित
सरल, सहज परिदृश्य ह्रदय का,
अर्पित उन दुखियारों को
हो शाश्वत आकांक्षाएं पूरित,
उर्जस्वित करें विचारों को
श्रीप्रकाश शुक्ल
लन्दन
१२ मई २०१०
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