दिसंबर का माह वो माह है जिसमें मेरा पुत्र और तीनों बेटियां विदेश जाकर रहने लगीं कभी लगा कि ये ठीक नहीं हुआ फिर कभी, कि जो कुछ भी हुआ ठीक ही होगा . इन्हीं विचारों को इन दो रचनाओं में पिरोने का प्रयास किया है कहाँ तक अपनी अनुभूति व्यक्त कर सका यह आप निर्णय करेंगे :
लौट आओ
देश घिरा है अपवादों से
मूल्य हुए सर्वत्र नष्ट
विपदाओं के बादल छाये
लालच बस नेतृत्व भ्रष्ट
विषम परिस्तिथियाँ घेरे हैं
जब देश बुलाये उनको
मातृभूमि की अचल शक्ति पर
दृढ विश्वास है जिनको
जगहित, जनसेवा में जो
निज हित को बलिदान करें
झंझावात कठिन सह कर भी
मार्ग प्रशस्त प्रदान करें
बूँद बूँद से सागर भरता
कण कण से बनता सागर तट
अणु अणु से ब्रह्माण्ड सृजन
क्षण क्षण रचता काल विकट
देश बुलाता उन पुत्रो को
जो बन रहे आँख के तारे
जिन पर सबका विश्वास अडिग था
जो सबके थे सुदृढ़ सहारे
याद तुम्हारी कभी न बिसरी
तुम्हें याद कर कभी न थकते
लौटो अपने देश बंधुओ
राह तुम्हारी हम सब तकते
श्रीप्रकाश शुक्ल
२३ दिसम्बर २००९
दिल्ली
प्रवासी
मुझे गर्व है उनपर
जो मेरी मिट्टी में
उपजे,पनपे,लिखे पढ़े और बड़े हुए,
अपने पैरों खड़े हुए.
फिर अपनी
बुद्धि, ज्ञान प्रबलता से,
निष्ठा,कार्य कुशलता से,
सदाचार, कर्मठता से,
डट गए
विश्व के हर कोने में,
एक नया उत्साह लिए,
नए सृजन की चाह लिए,
बिन बाधाओं की परवाह किये,
पाये वो लक्ष्य सहज ही में,
जो दुर्लभ और अगम थे
कोई भी हो क्षेत्र, कठिन कितना भी,
कितने भी दुर्गम कार्य,
उनके लिए सुलभ थे
अपने सपने साकार देख
रच रहे नित्य वो कीर्तिमान,
जीवन उनका आदर्श पूर्ण
देश करे उन पर गुमान
पर उन बिछुडों की याद
जब मन में घर कर जाती है
उठती टीस ह्रदय में, हो व्याकुल मन
अश्रु धार वह जाती है
यही कामना जन्मभूमि की,
जहाँ रहो सुख पाओ
सत्य अहिंसा आत्मसात कर
विश्व बंधुत्व निभाओ
श्रीप्रकाश
२५ दिसम्बर २००९
दिल्ली
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