विफलता
मैं स्वयम ही चकित था, अपनी विफलता पर
भौतिक सुसाधन जुटा पाने की, असफलता पर
कोइ बतलाता नहीं,
स्वयं जान पाता नहीं,
समय चक्र चलता रहा,
जीवन काल घटता रहा
एक किसी प्रकरण में, मित्र ने यूं कहा
ढेर सारी भूलें कीं , जिससे तुमने ये सहा
तुम बुद्धि की जगह, दिल से काम लेते हो
हर डूबते हुए को, अकारण थाम लेते हो
सत्य बोल सभा में, बिष घोल देते हो
सफलता के भार को, इंसानियत से तौल देते हो
कठिन काम सर पे ले, आगे बढ़ते हो
जलती हुयी आग में, निर्भय कूद पढ़ते हो
अन्याय असहाय पर, तुमसे सहा जाता नहीं
झूटी प्रशंसा में, एक शब्द कहा जाता नहीं
इस तरह जीवन यापन में, क्या कोई बुद्धिमानी है ?
मैंने कहा बंधु,, ऐसा न करना सरासर बेईमानी है
सरासर बेईमानी है I
श्रीप्रकाश शुक्ल
०५ मार्च २०१०
दिल्ली
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