दिल्ली की एक सड़क पर धटित एक परिदृश्य ने ह्रदय को
झकझोर कर रख दिया और सोचकर कि ऐसी घटनाओं का
निर्मूल निदान संभवतः कभी भी न मिल सकेमन अति उद्द्वेलित
रहा . क्या था यह दृश्य आईये देखिये यहाँ :-
एक बचपन
सर्दी के दिन
मध्य रात्रि,
गाडी चलते चलते
डग मगाई,
फिर
चूँ चूँ कर रुक गई
देखा, पहिया फ्लेट था
सामने की झोपडी से
एक बचपन
ठुरता हुआ ,
दौड कर
आया, बोला
साहिब बदल दूं
बदल,जल्दी कर
गाडी के नीचे घुसा,
जैक लगाया और
नंगे पैर स्पैनर
पर कूद कूद कर
नट खोलने लगा
नट खुल रहा था
पैर कट रहा था
पहिया बदल,
दायाँ हाथ फैला
खडा हो गया
जैसे भीख मांग रहा हो
या फिर
जैसे साहिब की
इंसानियत आँक रहा हो
साहिब जी ने
पांच का सिक्का
उसके हाथ पर पट्कते हुए कहा
ले, भाग जा
लडखडाती आवाज़ में
धीरे से बोला
साहिब जी कम हैं,
साहिब अनसुनी कर
गाडी में बैठे
चले गए
तेज रफ्तार
धुंध में खोगई
आँखों से ओझल हो गयी
बचपन
सोचता रहा
इंसानियत यहाँ भी
मर चुकी है
कहाँ होगी ?
आँख का पानी
यहाँ भी सूख चूका है
कहाँ होगा ?
फिर मुट्ठी में सिक्का दबाये
अपनी खोली लौट गया
ख्याल आया
यह बचपन
कोई भी हो सकता था
श्रीप्रकाश शुक्ल
5 जनवरी २०१०
दिल्ली
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