मैं पिछले एक साल से इ-कविता का सक्रिय सदस्य हूँ. इस मंच पर अनेको प्रबुद्धजन अपनी रचनाएं देकर, उनपर प्रतिक्रियायों द्वारा विचारो का आदान प्रदान करते हैं. दो माह पहिले मैंने सह -संचालक से इस प्रक्रिया में समस्या पूर्ती की प्रक्रिया सम्मलित कराने का अनुरोध किया जो सर्व सम्मति से स्वीकृत हुआ.इस प्रक्रिया में बुद्धि कल्पना, भाव और भाषा में ताल मेल बिठाना होता है. कोई वाक्यांश दिया जाता है और उसे रचना में कहीं भी पिरोकर रचना पूरी करनी होती है इसमें अभी तक चार समस्याएं पूरी हो चुकीं हैं . इस समय का वाक्यांश है " वो खड़ा सीमाओं पर" जिसकी पूर्ती १५ जून तक होनी है. वाक्यांश श्रीमती शार्दूला नोगजा ने प्रस्तावित किया है . तो लीजिये पढ़िए इस वाक्यांश पर मेरी रचना :-
वो खड़ा सीमाओं पर,
वो खड़ा सीमाओं पर,
अपलक नयन नभ को निहारे
गिन रहा बेचैन मन,
टूटते, गिरते सितारे
जानता ये सब उसी के,
मित्रगन, प्रेमी स्वजन हैं
चल दिए जो, बिन मिले ही,
अब असंभावित, मिलन है
क्यों मनुज रहता भ्रमित,
मन में सशंकित, चैन खोकर
विद्रोह मिट सकते न क्यों,
सद्भावना के बीज बोकर
वो खड़ा सीमाओं पर,
प्रमुदित सबल विश्वास लेकर
प्रेम पल सकता ह्रदय में,
अहम् की आहूति देकर
वो खड़ा सीमाओं पर,
रुक रुक, स्वजन की याद आती
टीस बन, छलती ह्रदय को,
वेदना असमय जगाती
दिल पिघलता, फिर संभलता,
सोचकर कर्त्तव्य अपना
भाग्यशाली कौन मुझ सा,
कर सकूं जो पूर्ण सपना
वो खड़ा सीमा संभाले,
शपथ देता अस्मिता की, कर्म की,
कुछ भी न उसको चाहिए,
मांग है बस प्यार, सेवा धर्म की
थक रहा हैं तन मगर,
मन में भरा उत्साह है
कर सकूं कुछ देश हित,
बस यही एक चाह है
आज फिर देता बचन वो
जब तलक है, स्वांस तन में
सीमा सुरक्षित ही रहेगी
रखो अटल विश्वास मन में
यदि कोई कुदृष्टी, भूल से भी
आ पड़ी, मेरे घरों पर
देख लेना, फिर तिरंगा
दृढ़ गढा, उनके सरों पर
श्रीप्रकाश शुक्ल
लन्दन
०२ जून २०१०
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