कुंठित चेतना
कुंठित पड़ी चेतना अब तक, शब्द नहीं सज पाते हैं
विगत बर्ष के अंतिम दिन, नहीं भुलाए जाते हैं
शब्द रतन और राजा जैसे , खो बैठे अपनी गरिमा
उपनामों की संज्ञा में, नहीं चाहती अब कोई माँ
वीर सिंह से युद्ध वांकरे, पीठ दिखा कर भाग लिए
वर्षा आयी बिन जीवन रस , संस्कारों की राख लिए
मन मोहन रस लीला रंग में, खुद ही इतने मस्त हुए
पूतना पी गयी सागर सारा, ऐसे वो आश्वस्त हुए
छाई हुयी कालिमा इतनी कैसे यह मिट पाएगी
उषा किरण अब ग्यारह की क्या कुछ भी कर पाएगी
नए वर्ष में हम सब जुटकर ऐसा इक सकल्प करें
स्वच्छ कर सकें धूमिल छवि, ऐसा एक विकल्प धरें
श्रीप्रकाश शुक्ल
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