एक मूर्ति माटी की
कच्ची माटी से बनी,
अनेकों आकार लेती है वो,
बेटी, बहिन, माँ और
पत्नी रूप में निश्वार्थ,
सर्वश्व देती है वो,
पर जब
अन्यायों की झुलस,
आत्मग्लानि की आग
उसे तपाती है
तो वो पक जाती है
फिर आकारों में न ढलके
या तो टूट जाती है
या फिर फौलादी खंजर बन,
समाज के दरिंदों के समक्ष
आ खड़ी होती है
निर्भीक, चंडी सम, सहज ही उतारकर,
वो सुकोमल,सौम्य,
शालीनता का परिधान.
और हम देखते हैं नारी का
एक और रूप,विकृत रूप
जो स्वभावतः नहीं होता.
कौन उत्तरदायी है इस रूप का,
हम केवल हम
काश हम समझ पाते
और रोक पाते इस
अनावश्यक बदलाव को .
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment