अनपढ़ी किताब
कितनी नींदें बेकार गयीं
कैसे रख पाऊँ हिसाब
अधरों पर स्मित का घेरा
दे गया मुझे परिचय तेरा
मैं सुधि बुधि खोये खड़ा रहा
दे न सका कोई जबाब
हमने तो कुछ भी न कहा
मन ही मन चुपचाप सहा
कोई कभी न रिश्ता बोया
कैसे फिर उग आये ख्वाब
मेरा तो अनरँगा वसन था
कोरे कागज़ जैसा मन था
खिंच गये स्वयँ खाँचे विचित्र
उलझा जिनमें मैं बे हिसाब
तेरे अंतर मन की भाषा
छुपी सुलगती सी अभिलाषा
पा सम्प्रेषण पहुंची हम तक
बन कर के अनपढ़ी किताब
पढ़ने से पहले बापस ले ली
जीवन की कैसी अठखेली
अब सब जब बिखर गया तो
क्यूँ बेकल करता आबताब
कितनी नींदें बेकार गयीं
कैसे रख पाऊँ हिसाब
श्रीप्रकाश शुक्ल
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