कब रह पाया दुःख अनगाया
शेष न कुछ रहता जीवन में, केवल सुधियाँ रह जातीं हैं
सुख-दुःख, अश्रु, हास, आलिंगन, इन सुधियों में रहा समाया
जब अनुभूति विकल हो रोई, मचला दर्द, कंठ तक आया
कब रह पाया दुःख अनगाया
समबन्ध , प्रकृति, मानव मन का, रहा चिरंतन, गूढ़, सनातन
समझ सका संकेत न मानव, देती रही प्रकृति जो निशिदिन
ऋतु बदली, मानव मन तडफा, विस्मृति सन्देश उभर आया
भुला सका न जिसे कभी मन, शब्दों में बाँध गीत में लाया
कब रह पाया दुःख अनगाया
साँसों में सिमटी पीड़ा, बरबस आँखों में भर आती है
सिसकन उमड़ नहीं पातीं, सहसा गीतों में ढल जाती है
कितना भी धीरज, संयम हो, ये प्रवाह, मन रोक न पाया
रह पायी ना मौन भावना, दर्द ह्रदय का जब गहराया
कब रह पाया दुःख अनगाया
श्रीप्रकाश शुक्ल
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