Thursday, 11 July 2013

फिर से धूप  धरा पर उतरी 

मन की चादर के धागे सब उलझ गए हैं मैं में बिंधकर   
   सुलझाने के  हर प्रयास पर  फिरता पानी  रह रह कर   
       कुछ उलझे लोलुपता बसकुछ शोहरत की चाह भरे मन  
            जब तक ज़हर द्वेष का दिल में, ढाई अक्षर कैसे घोलूँ   
             फिर से  धूप  धरा पर उतरी, कैसे बोलूँ 

सारा जग संताप ग्रसित है, अविश्वास की अटल  दिवारें   
     चहुँ दिश गूँज रहे पीड़ित स्वर, ह्रदय भेद्तीं करुण पुकारें 
          कैसे बनूँ विकल बादल जो, कर ले वरण रूप शशिधर का  
             कैसे भार हरूं हर मन का, कैसे द्वार आस के खोलूँ  
             फिर से धूप  धरा पर उतरी ,कैसे बोलूँ 

लेकिन यह भी अटल सत्य है, उम्र तिमिर की भी सीमित है  
     बदलेंगे हालात देश केजनगण शक्ति अपरिमित है  
          तम की निशा विदाई लेगीअरुण रश्मियाँ फिर चमकेंगीँ  
               पत्थर सभी पलटने होंगे ,यह पल नहीं चैन से सो लूं  
                फिर से धूप  धरा पर उतरी, कैसे बोलूँ 


श्रीप्रकाश  शुक्ल 

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