फिर से धूप धरा पर उतरी
मन की चादर के धागे सब उलझ गए हैं मैं में बिंधकर
सुलझाने के हर प्रयास पर फिरता पानी रह रह कर
कुछ उलझे लोलुपता बस, कुछ शोहरत की चाह भरे मन
जब तक ज़हर द्वेष का दिल में, ढाई अक्षर कैसे घोलूँ
फिर से धूप धरा पर उतरी, कैसे बोलूँ
सारा जग संताप ग्रसित है, अविश्वास की अटल दिवारें
चहुँ दिश गूँज रहे पीड़ित स्वर, ह्रदय भेद्तीं करुण पुकारें
कैसे बनूँ विकल बादल जो, कर ले वरण रूप शशिधर का
कैसे भार हरूं हर मन का, कैसे द्वार आस के खोलूँ
फिर से धूप धरा पर उतरी ,कैसे बोलूँ
लेकिन यह भी अटल सत्य है, उम्र तिमिर की भी सीमित है
बदलेंगे हालात देश के, जनगण शक्ति अपरिमित है
तम की निशा विदाई लेगी, अरुण रश्मियाँ फिर चमकेंगीँ
पत्थर सभी पलटने होंगे ,यह पल नहीं चैन से सो लूं
फिर से धूप धरा पर उतरी, कैसे बोलूँ
श्रीप्रकाश शुक्ल
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