फिर से धूप धरा पर उतरी
बिना मीत मन रीती गगरी
तृषित रहे जीवन की डगरी
बिन बोले सखि चले गए वो,
कसक उठी, बेकदरी अखरी
वर्षा गयी, शरद ऋतु आई,
पिया मिलन की चाहत उभरी
आँखें पथराई, बाट जोहते,
आँगन में मायूसी पसरी
कटती नहीं सांझ और रातें,
युग युग सी बीते दोपहरी
हर-चन्द सब सुख साथ रहे,
पिय की याद न पल भर बिसरी
पिय आये जब मेरी नगरी ,
फिर से धूप धरा पर उतरी
धूप तपे, या बादल बरसे ,
पिय का साथ यक़ीनी छतरी
बिना मीत क्या जीना है "श्री "
बोझ लगे जिंदगानी सगरी
श्रीप्रकाश शुक्ल
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