प्राण ही शब्दित हुये
आज मेरे देश में, फिर से अमा सी घिर रही है
साख थी जो बनी अब तक, मलिन होकर गिर रही है
अवरुद्ध हैं पुरुषार्थ पथ, छल के अँधेरे छा रहे हैं
नित ही अनय अन्याय के, अध्याय खोले जा रहे हैं
हैं कहाँ वो वीर नरवर, आँधियों में खो गये जो
शीश दे बलिपंथ की पहचान, सी ही हो गये जो
याद उनकी ह्रदय धर, हम मान दें उनके मरण को
ध्यान कर उनकी शपथ, कर लें नमन पावन धरण को
आव्हान कर तरुनाई का,प्रश्न उनसे पूछते यों
हो आख मूंदे क्यों पड़े, अभिद्रोह से न जूझते क्यों
वादा करो अब ना सहेंगे दर्द दुःख व्यभिचार के
तिल तिल कटेगे ना झुकेंगे, दुष्टता के भार से
जीवन अगर है सरज़मीं,बन जाओ तो अविचल रथी
हो सत्य का ही कवच धड्पर, संकल्प दृढ़,हो सारथी
मुरझाये स्वर समुदाय के, फिर गायेंगे उपकार में
प्राण ही शब्दित हुए, जन जन की इस हुंकार में
श्रीप्रकाश शुक्ल
ओज और आवेग से भरी इस कविता में आपने 'प्राण ही शब्दित हुए'को जो नई भंगिमा दी वह सराहनीय है,और अधिक प्रभावी भी !
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