अनछुई सांझ को अचानक
अनगिन सांझें बीत गयीं, दुःख दर्द भरे पल जीते जीते
बिछड़े प्रिय की सुधि ना मिली, बीत गये दिन दृग जल पीते
अनछुई सांझ को आज अचानक, उनकी इक़ पाती आई
बुझे हुए तन मन में सहसा जाग उठी फिर से तरुणाई
थी मौसम की प्रथम बृष्टि सी, प्रीति भरी वो पाती
सरस हुआ रूखा उर आँगन, शितलाई तपती छाती
नैराश्य भरे जीवन के पल में, लगा, लौट प्रत्याशा आई
जैसे झुलस रही धरती को, चूमें घटा, बहे पुरवाई
अनमोल अक्षरों में सिमटी थी, केवल नयनों की भाषा
झलक रही वो पीड़ा जिसमें, नश्वर रही मिलन की आशा
अभिशापित पलकों में छलके, प्रेम अश्रु रुक गए किनारे
मछली सा मन तड़प उठा, कर याद रस-अयन नयन दुलारे
वो सांझ अनछुई घड़ियों की, अब रह रह कर सुधि में आती
तन छूकर कैसे रही अनछुई, ये गुत्थी सुलझ नहीं पाती
स्नेह सिक्त अभिव्यक्ति भरे, पाती, मन की प्यास बढाती
सूखा रहे तृषित मन प्रतिपल, जैसे घृत बिन दीपक बाती
श्रीप्रकाश शुक्ल
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