बोल हैं कि वेद की ऋचाएं हैं
तुलसी के मानस में झाँक कर देखा आज,
पत्नी वियोग में भगवान राम रोते हुए
पूछते लताओं से सीते को देखा क्या,
तुमसे कुछ कह सकी धैर्य को संजोते हुए
सागर की महिमा को राघव ने मान दिया
सरिता तट जाकर सरयू को प्रणाम किया
गोबर्धन पूजा करते, सूर्य को चढ़ाते अर्घ्य
भारत ने सदा ही प्रकृति मय जीवन जिया
प्रकृति को मानते हैं पुरुष की जननी सभी
भारत में मानते है माँ सामान पूज्या
पोषण भरण जो करती रही स्वार्थ रहित
जन जन के ह्रदय में रही बन के आराध्या
प्रकृति के उपकार सकल स्वीकारते हैं,
पच्छिमी भी,संज्ञा दे, कहते हैं कार्बन ऋण
रचते उपक्रम अनेक, जैसे भी होसके
प्रकृति के औदार्य से हो सकें सब उऋण
भारत के चिंतकों की बात ही अनूठी सी
लोक गीत, ग्रन्थों भरी जो अभिव्यंजनायें हैं
कितना ही प्रयास करो समझ नहीं पाओगे
अनुभूतियों के बोल हैं कि वेद की ऋचाएं हैं
श्रीप्रकाश शुक्ल
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