जिन्दगी के ओ बटोही यह नहीं विश्रांत का पल
ओ बटोही, आप चल आये डगर इक़ बहुत लम्बी,
और पथ में कीर्ति के स्तम्भ भी अगणित गढ़े हैं
पर अभी भी है विकल, मख भूमि विश्वामित्र की,
शांति जिसकी भंग करने, खल सुबाहु से खड़े हैं
आज भी है आत्म गौरव, क्षीण, जर्जर, त्रस्त, दुर्बल
शोषण, दमन का सांप, जो डसता रहा है युग युगों से
आज भी वो मुंह छुपाये, भेष बदले जी रहा है
आज भी है आत्म गौरव, क्षीण, जर्जर, त्रस्त, दुर्बल
जिन्दगी के ओ बटोही, यह नहीं विश्रांत का पल
शोषण, दमन का सांप, जो डसता रहा है युग युगों से
आज भी वो मुंह छुपाये, भेष बदले जी रहा है
आज भी पीड़ित उरों में, पल रही जड़ता, निराशा,
ज भी दुखिया, तृषित चुपचाप आंसूं पी रहा है
आज गुंजित हो रहा ,जन चेतना का स्वर प्रबल
जिन्दगी के ओ बटोही, यह नहीं विश्रांत का पल
जाग्रत हुआ है आज जनपद और उमड़ा जोश जन का
आज सड़कों पर खडे कटि बद्ध हैं, अनगिन कदम
ठोकने को कील अंतिम, छद्म चालों के कफ़न पर,
जन समर्थन साथ ले, लड़ना पड़ेगा अथक हरदम
जागो, उठो भवितव्य का, निस्सार हो न कोई कल
जिन्दगी में ओ बटोही ,यह नहीं विश्रांति का पल
जिन्दगी में ओ बटोही ,यह नहीं विश्रांति का पल
श्रीप्रकाश शुक्ल
No comments:
Post a Comment