संभ्रम
क्यों खड़ा तू आज विह्वल,
हो प्रकम्पित स्वयं से डर
क्यों नहीं मिलती दिशा,
दिखती न क्यों चाही डगर
कौन है अनुबंध वो,
लिप्त तू जिसमें अकारण
कौन वो नश्वर प्रलोभन,
कर रखा जिसको वरण
क्यों न पाता भूल तू,
मानस जनित अभिप्रीति वो
स्थायित्व जिसका कुछ नहीं ,
मात्र मृगजल भ्रान्ति जो
क्यों समझ बैठा है तू,
हो रहा है जो घटित
वो है नियति की बाध्यता,
पूर्व निर्धारित रचित
क्यों न सुन पाता तू,
क्रंदन, ह्रदय में जो उठ रहा
ओढ़ तम का आवरण
हतबुद्धि ,क्यों तू घुट रहा
उठ स्वयं अनुमान ले,
वो शक्ति जो अन्तर्निहित
चाहे, बदल दे नियति भी
तू बुद्धिजीवी प्रकृति कृति
श्रीप्रकाश शुक्ल
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